रालोसपा का जदयू में विलय होना बिहार की सियासत के मद्देनजर बड़ी घटना है। हालांकि ये कोई नई बात नहीं है। इससे पहले भी रालोसपा सुप्रीमो जदयू से ही अलग हुए थे। बिहार की सियासत के लिए दोनों को एक दूसरे के साथ की जरूरत है। इसकी शुरूआत बिहार विधानसभा चुनाव 2020 में दोनों पार्टियों के प्रदर्शन के बाद से हो गई थी।
विधानसभा चुनाव में जहां उपेंद्र कुशवाहा की पार्टी को एक भी सीट पर जीत नसीब नहीं हुई वहीं जदयू (JDU) ने अपने कोटे की सीटों में से मात्र 43 सीटों पर जीत दर्ज की। इस चुनाव में सीएम नीतीश की पार्टी का प्रदर्शन 2015 के चुनावों के मुकाबले अच्छा नहीं रहा और पार्टी आधी सीट पर भी जीत नहीं सकी। इसके बाद से ही दोनों दलों में बड़ा उलटफेर होने की संभावना बनने लगी थी।
ऐसे में जदयू ने अपने वोट बैंक को मजबूत करने के लिए लव-कुश समीकरण को एक बार फिर साथ करने की जरूरत समझी। बिहार में उपेंद्र कुशवाहा कुशवाहा समाज के सबसे बड़े नेता माने जाते हैं। नीतीश के साथ जाने से जेडीयू को और कुशवाहा दोनों को फायदा होना तय है। दरअसल इसी समीकरण के सहारे नीतीश कुमार ने खुद को सत्ता में मजबूत किया है। चुनाव में कमजोर प्रदर्शन के बाद नीतीश कुमार कुशवाहा समाज को एक बार फिर साथ कर अपने इस समीकरण को मजबूत करना चाहते हैं। वहीं उपेंद्र कुशवाहा नीतीश कुमार का विरोध करते-करते लोकसभा और विधानसभा चुनाव एक भी सीट नहीं जीत सके। हाशिए पर पहुंच चुके कुशवाहा को भी नीतीश कुमार के रूप में एक मजबूत साझीदार की जरूरत है।
बिहार की जाति वाली राजनीति में नीतीश कुमार की कुर्मी(लव) और उपेंद्र कुशवाहा की कोइरी(कुश) वोटरों पर अच्छी पकड़ मानी जाती है। एक समय जब नीतीश और कुशवाहा जब साथ थे तो कुर्मी-कोईरी(लव-कुश) वोट बैंक एक साथ आने से दोनों को फायदा हुआ था लेकिन 2020 विधानसभा चुनाव में लव-कुश वोट बंटने से दोनों पार्टियों को खामियाजा भुगतना पड़ा। ऐसे में दोनों के साथ आने से एक बार फिर बिहार की सियासत में दोनों को फायदा हो सकता है।