स्वर्ग का अमृत भी भागवत-कथा रूपी अमृत की बराबरी नहीं कर सकता


सच्चिदानंद रूपाय विश्वोत्पत्यादिहेतवे !

तापत्रय विनाशाय श्री कृष्णाय वयं नुम: !!

प्रभासाक्षी के धर्म प्रेमियों !

पिछले अंक में हमने श्रीमद भागवत महापुराण के माहात्म्य के अंतर्गत भक्ति के स्वरूप की चर्चा की थी, आइए ! उसी क्रम को आगे बढ़ाएँ। 

हमारे शास्त्रकारों ने भागवत की कथा को साक्षात् अमृत स्वरूप बताया है। अमृत तीन प्रकार के बताए गए हैं-

1) पहला अमृत समुद्र मंथन से निकला जो धन्वंतरि लाए उसे देवताओं ने पान किया।

2) दूसरा अमृत चंद्रमा में है वह वनस्पतियों में प्रकट हुआ आयुर्वेद में औषधि बनी।

3) कलियुग में तीसरा अमृत भागवत कथा जो सबको सुलभ है।

एत्स्माद अपरम् किंचित मनः शुद्धयै न विद्यते । हृदय को शुद्ध करने के लिए इसके अतिरिक्त कोई उपाय नहीं।

जन्मांतरे भवेत पुण्यम तदा भागवतम लभेत। 

जब कई जन्म जन्मांतरों का पुण्य एकत्र होता है तब भागवत कथा सुनने का संयोग बनता है। 

श्रीमद् भागवत युवाओं का ग्रंथ है। महात्मा गांधी ने युवावस्था में भागवत ग्रंथ को पढ़ा था उसके बाद उनके जीवन में बदलाव आया जिसने उन्हें बैरिस्टर मोहनदास गांधी से महात्मा गांधी बना दिया। इस पूरी कथा के सूत्रधार दो युवा ही हैं परीक्षित और 16 वर्ष के शुकदेव जी।

जहाँ भागवत कथा होती है वह स्थान तीर्थ स्वरूप हो जाता है। 

तद् गृहं तीर्थ रूपम्।

महर्षि वेद व्यास ने चार श्लोकों का विस्तार 18 हजार श्लोकों में किया इसीलिए उनका नाम कृष्ण द्वैपायन से महर्षि वेद व्यास हुआ। उनकी प्रिय संख्या 8 और 18 है।

भागवत के अष्टम स्कंध के आठवां अध्याय आठवां श्लोक आठवें नंबर पर लक्ष्मी जी का प्रादुर्भाव। अद्भुत रचना का प्रमाण है।

18 पुराण, भागवत में 18 हजार श्लोक, भगवत गीता में 18 अध्याय, महाभारत का युद्ध 18 दिनों तक चला, महाभारत में 18 पर्व, सेनाओं की संख्या 18 अक्षौहिणी। 

भागवत में ऐसा वर्णन आता है कि जब श्री शुकदेव जी महाराज राजा परीक्षित को कथा सुनाने के लिए सभा में उपस्थित हुए ठीक उसी समय देवता अमृत-कुंभ लेकर वहाँ आए और निवेदन किया- “महाराज! यह स्वर्ग का अमृत परीक्षित को पिला दीजिए और बदले में अमृत रूपी भागवत-कथा हमें दे दीजिए।''

परीक्षिते कथा वक्तुं सभायां संस्थिते शुके 

सुधा कुंभं गृहीत्वैव देवा, तत्र समागमन्

यह सुनकर शुकदेव जी महाराज ने यह कहते हुए देवताओं को डांट कर भगा दिया कि स्वर्ग का अमृत भागवत-कथा रूपी अमृत की बराबरी नहीं कर सकता। भागवत-कथा मणि तुल्य है जब कि आपके स्वर्ग का अमृत काँच के बराबर है। 

क्व कथा, क्व सुधा लोके क्व काच: क्व मणिर्महान । 

श्री शुकदेव जी महाराज कहते हैं-- भागवत-कथा देवताओं को भी दुर्लभ है। 

श्रीमद् भागवती वार्ता सुराणामपि दुर्लभा।

देवता भक्ति शून्य होते हैं इसलिए शुकदेवजी ने देवताओं को अपात्र समझा।

कथा श्रवण करने के पश्चात परीक्षित की मुक्ति देखकर ब्रह्माजी को बड़ा आश्चर्य हुआ। परीक्षित को तौलने का निर्णय किया गया, सत्यलोक की सभी चीजें हल्की पड़ गईं। तराजू पर जब भागवत पुराण रखा गया तब पलड़ा भारी हो गया।

श्रीमद भागवत पुराण सभी शास्त्रों का सार है। महर्षि वेदव्यास को जब वेदों के संकलन और महाभारत, पुराणों की रचना के बाद भी शांति नहीं मिली तो उनके गुरु नारद मुनि ने उन्हें श्रीमद् भागवत पुराण लिखने को प्रेरित किया। यह श्री वेदव्यासजी की आखिरी रचना है और इस कारण पूर्व के सारे रचनाओं का निचोड़ है।

भक्ति सुधा एक बार नारद जी पृथ्वी लोक को सर्वोत्तम मान भ्रमण के लिए आये वे सभी तीर्थस्थलों पर घूमे पर उन्हें कहीं भी शांति नहीं मिली। कलियुग से सारी पृथ्वी पीड़ित थी। सभी असत्यभाषी दुराचारी व पाखंडी और भाग्यहीन हो गए थे सत्कर्मों के लिए कोई जगह नहीं रही थी यह सब देखते हुऐ नारद जी यमुना के तट पर पहुँचे। वहाँ एक स्त्री अपने दो पुत्रों के साथ बैठी थी, कभी उनकी सेवा करती कभी जोर से रोने लगती तभी नारद जी को आता देख उस स्त्री ने उन्हें रोका और कहा कि महात्मन क्षण भर रुककर मेरी चिंता का समाधान करें आप तो अन्तर्यामी और श्रीहरि के अनन्य भक्त हैं। नारद जी ने पूछा कि हे देवी तुम कौन व ये दोनों कौन हैं। तब उस स्त्री ने बताया कि मेरा नाम भक्ति और ये दोनों मेरे पुत्र हैं ज्ञान और वैराग्य।

नारद जी ने पूछा कि हे देवी आप तरुण हैं और आपके पुत्र वृद्ध ऐसा क्यों ? तब भक्ति ने अपनी कथा नारद जी को सुनाई। मुझे पहले बहुत सम्मान प्राप्त था किंतु कलियुग के आगमन के साथ पाखंडियों के कारण मेरा व मेरे पुत्रों का बल व तेज क्षीण हो गया हम जगह-जगह घूमे निर्बल और निर्बल होते चले गए। जब हम यहाँ वृन्दावन पहुंचे तो मैं तरुण हो गयी लेकिन मेरे पुत्र वृद्ध व निस्तेज हो गए अब यह उठते भी नहीं मैं इसका कारण जानना चाहती हूं कृपया मुझे शांति प्रदान करें। तब नारद जी बोले कि मैं अपनी ज्ञानदृष्टि से देखकर तुम्हारे दुख के कारण का पता लगता हूँ। नारद जी ने अपनी ज्ञानदृष्टि से ज्ञात कर बताया कि कलियुग के प्रभाव के कारण ऐसा है। वृन्दावन में श्रीहरि का वास होने के कारण लोगों में प्रेम भाव व भक्ति शेष है इसलिये यहां आकर तुम तरुण हो गई और तुम्हारे ये पुत्र इन्हें यहां आत्म सुख की प्राप्ति हुई है इसलिए ये तुम्हें सोये हुए लग रहे हैं। सतयुग त्रेतायुग में मोक्ष का मार्ग सिर्फ ज्ञान व वैराग्य था किंतु कलियुग में भक्ति ही मोक्ष का मार्ग है। हे देवी आप श्रीहरि को बहुत प्रिय हो। पृथ्वी पर नारद तीर्थ स्थानों में घूमते रहे कहीं शांति नहीं मिली।

भक्ति से नारद की मुलाक़ात 

भो: भो साधो क्षणं तिष्ठं मत् चिंतामपि नाशय

दर्शनं तव लोकस्य सर्वथाघहरं परम्।।

वद् देवी सविस्तारं स्वस्य दुखस्य कारणम् 

कथं परीक्षिता राज्ञा स्थापितो ह्यशुचि: कलि:।

यत्फलं नास्ति तपसा न योगेन समाधिना  

तत्फलं लभते सम्यक् कलौ केशव कीर्तनात्।। 

गोस्वामी जी ने भी रामचरित मानस में चौपाई गाई। 

कलियुग केवल नाम आधारा, सुमिरि सुमिरि नर उतरहि पारा॥ 

साधुनां दर्शनं लोके सर्वसिद्धिकरं परम्।

पापिनोपि गमिष्यन्ति निर्भयं कृष्ण मंदिरम्।

भागवताकार कहते हैं---

आजन्म मात्रमपि येन शठेन किंचित, चित्तं विधाय शुकशास्त्र कथा न पीता

चांडालवत् च खरवत् वद् तेन नीतं, मिथ्या स्वजन्म जननी जनि दु:ख भाजा।।

धिक् तं नरं पशु समं भुवि भार रूपमेव  वदन्ति दिवि देव समाज मुख्या:।

धिग्जीवितं प्रजाहीनं धिग्गृहं च प्रजां बिना

धिग्धनं चानपत्यस्य धिक्कुलं संततिं बिना।।

श्रृणु विप्र मया तेद्य प्रारब्धं तु विलोकितं

सप्त जन्मावधि तव पुत्रो नैव च नैव च।

गोकर्ण: पंडितो ज्ञानी धुंधकारी महाखल:।

देहेस्थिमांस रूधिरे भिमतिं त्यज त्वं, जायासुतादिषु सदा ममता विमुंच।

पश्यानिशं जगदिदं क्षणभग निष्ठं, वैराग्यराग रसिको भव भक्ति निष्ठ:।।

स्त्रीणां नैवतु विश्वासं दुष्टानां कारयेद बुधै: ।

विश्वासे य:  : स्थितो मूढ: स: दु:खै: परिभूयते।।

अहं भ्राता त्वदीयोस्मि धुंधुकारी इति नामत:

स्वकीयेनैव दोषेण ब्रह्मत्वं नाशितं मया ।।

सर्वेषां पश्यतां भेजे विमानं धुंधुली सुत:

श्रवणं तु कृतं सर्वै: न तथा मननं कृतम्।।

- आकाश वाणी का अर्थ नारद जी नहीं समझ सके।

- नारद ने ज्ञान वैराग्य को कथा सुनाई। 

- गोकर्ण धुंधकारी की कथा।

- आत्म देव ब्राह्मण और संन्यासी की कथा 

- संन्यासी ने ब्राह्मण को एक फल दिया। 

- धुंधली से धुंधकारी का जन्म।

ॐ नमो भगवते वासुदेवाय