हमारे विचार --(कभी राम राज्य था )में भाई अमित अरोड़ा जी ने श्रेष्ठतम टिप्पणी दी है ।
उनका आभार ।
अपराध होने पर निश्चित रूप से दण्ड का प्रावधान होता है ।और दण्ड सबूतों व गवाहों के आधार पर न्यायालय देता है ।लेकिन यह भी कड़ुआ सत्य है कि अधिकतर दोषी बाहर स्वतंत्रता से निश्चिंत होकर घूमते हैं और निर्दोषी पिटता है तथा अंदर होता है ।कारण बहुत होते हैं जिनसे आप सभी अनभिज्ञ नहीं हैं अतः उनकी चर्चा व्यर्थ है।
सामंती प्रथा में या राजा महाराजाओं के राज्य में उनका आदेश या मुँह से निकला शब्द ही पत्थर की लकीर या कानून होता था ।परंतु आज कानून का क्षेत्र अलग है और उस पर नजर रखने वाला या नियंत्रक मानवाधिकार कानून है ।जिसका उद्देश्य मात्र यह होता है कि निरीह व निर्दोष किसी भी परिस्थिति में दण्ड का भागीदार न हो ।
लेकिन मित्रों कानून के हाथ बहुत लम्बे हैं ऐसी धारणा तो है मगर देखने में तो कुछ ओर ही होता है।सत्य की पैरवी करना सरल नहीं होता ।मानवीय स्वभाव है नफरत ,लालच , जान ,पहचान, अपना पराया का भाव न्यायालय की निचली सीढ़ी से उच्चतम् पायदान तक अपना असर दिखाए बिना नहीं मानता ।
परिणाम स्वरूप या तो न्याय मिलता ही नहीं और अपराध बोध के साथ वह कोई भी हो सकता है अलविदा कह देता है दुनिया को । किसी को मरणोपरांत न्याय मिलता है जिसकी कोई कीमत नहीं रहती ।लेकिन कोई इतना भाग्यशाली होता है कि देर से ही सही परंंतु दूध का दूध और पानी का पानी होता है। परन्तु इसमें भी देर इतनी हो जाती है कि उसकी जिंदगी के सुनहरे पल बीत चुके होते हैं जिनको लौटाना असम्भव होता है ।
बात बस अंत में बड़े बुजुर्गों की कही जो सबने सुनी है कि सब भाग्य की माया है। कर्मों के लेख हैं । जिनको भुगतना और पढ़ना ही है ।चाहे मानो या न मानो ।
लेकिन सत्य को यूँ हारने तो नहीं देंगे।संघर्ष जारी रहना चाहिए ।
अनिला सिंह आर्य।