जीवंत लोकतंत्र के लिए संघर्ष की नई शुरूआत अपेक्षित

जीवंत लोकतंत्र के लिए संघर्ष की नई शुरूआत अपेक्षित

भारत में लोकतंत्र की व्यूह रचना के आधार राजनीति दल हैं और ये राजनीतिक दल वोट बैंक पर टिके हैं। यही कारण है कि लोकतंत्र में सिर गिने जाते हैं, मस्तिष्क नहीं। इसका खामियाजा हमारा लोकतंत्र भुगतता है, भुगतता रहा है। ज्यादा सिर आ रहे हैं, मस्तिष्क नहीं।

बाहुबल का जब भी प्रयोग हुआ या होता है तो नतीजा महाभारत होता है। हमने पश्चिम बंगाल के चुनावों में बाहुबल का प्रयोग देखा। चुनाव के दौरान एवं चुनाव के बाद के खून से लथपथ दृश्य हमारी आंखों में आज भी बसे हैं, जो लोकतंत्र में छिपी एक ऐसी नियति का दुष्परिणाम है जो भारत और भारतीयता के सूर्य को ही निगलना चाहती है। चुनाव जीतने के बाद बहुमत वाली ममता की पार्टी के कार्यकर्ताओं ने किस तरह से विरोधी पार्टी को वोट देने वाले सामान्य लोगों के घर जलाए, हत्याएं की और कितने ही लोगों को पड़ोसी राज्यों में शरण लेने के लिए बाध्य कर दिया। इन दृश्यों ने बंगाल को तो आतंकित किया ही है, अब तथाकथित समाजवादी दल के विजय होने की संभावना मात्र से उत्तर प्रदेश की जनता डरी हुई है।  

विडम्बना देखिये- वोटों की बुनियाद पर खड़ा लोकतंत्र और ऊपर से अपनी सहिष्णुता एवं सौहार्द का कायल भारतीय विशाल मतदाता समुदाय ऐसी घटनाओं को ऑक्सीजन देने का आदि हो गया है। लेकिन कब तक? उत्तर प्रदेश का विधानसभा चुनाव तो ऐसी-ऐसी विडम्बनाओं को पक्का कर रहे हैं जिनसे भविष्य में तंत्र भले ही बचा रहे, लोक जीवन खतरे में पड़े बिना नहीं रह सकता। सत्ता तक पहुंचने के लिए जिस प्रकार दल-टूटन व गठबंधन हुआ है इससे सबके मन में अकल्पनीय सम्भावनाओं की सिहरन उठती है। राष्ट्र और राष्ट्रीयता के अस्तित्व पर ही प्रश्नचिन्ह लगे हैं। कुछ अनहोनी होगी, ऐसा सब महसूस कर रहे हैं। प्रजातंत्र में टकराव होता है। विचार फर्क भी होता है। मन-मुटाव भी होता है पर मर्यादापूर्वक। अब इस आधार को ताक पर रख दिया गया है। राजनीति में दुश्मन स्थाई नहीं होते। अवसरवादिता दुश्मन को दोस्त और दोस्त को दुश्मन बना देती है। यह भी बडे़ रूप में देखने को मिला। धनबल का जब भी प्रयोग हुआ तो नतीजा शोषण, गुलामी के रूप में हुआ।

एक तरफ लोकतंत्र का उत्सव है, दूसरी ओर चुनाव के इसी उत्सव के दौरान कर्नाटक से एक वर्ग द्वारा आजादी के नाम पर महिलाओं को गुलामी के एक प्रतीक से ढकने की आवाज उठी है। हम खाने में अलग, पहनने में अलग, सूंघने में अलग-जब ऐसे अलगाववादी-जिन्नवादी तत्त्व बोतल से निकल बाहर आते हैं तो राष्ट्रीयता के तत्त्व पृष्ठभूमि में-रसातल में चले जाते हैं। कर्णाटक में छात्राओं को आजादी के नाम पर गुलामी के प्रतीक देकर सड़कों पर उतारने वाले अपनी राष्ट्रविरोधी सोच का परिचय देते हुए अपनी संकीर्ण पुरुषवादी मानसिकता का बोझ महिलाओं पर लाद रहे हैं। महिलाओं को बाध्य किया जा रहा है कि वे काले बुर्के में अपने सपनों का गला घोटते अपनी जिंदगी को गुलामी के खूंटे से बाँध कर रखें। और इसकी शुरुवात शिक्षा के मन्दिरों से की जा रही है। बुरकाप्रथा की मानसिकता की शिकार लड़कियों को यह पता नहीं कि कट्टरपंथियों का अगला निशाना उन्हें तालिबान की तरह शिक्षा और नौकरियों से वंचित करना होगा। लेकिन स्वार्थ एवं कट्टरवाद के नाम पर महिलाओं को गुलाम बनाने का यह षड़यंत्र चुनाव को प्रभावित करने के लिये रचा गया है। यह भी लोकतांत्रिक मूल्यों का हनन है।

भारत में लोकतंत्र की व्यूह रचना के आधार राजनीति दल हैं और ये राजनीतिक दल वोट बैंक पर टिके हैं। यही कारण है कि लोकतंत्र में सिर गिने जाते हैं, मस्तिष्क नहीं। इसका खामियाजा हमारा लोकतंत्र भुगतता है, भुगतता रहा है। ज्यादा सिर आ रहे हैं, मस्तिष्क नहीं। जाति, धर्म और वर्ग के मुखौटे ज्यादा हैं, मनुष्यता के चेहरे कम। बुद्धि का छलपूर्ण उपयोग कर समीकरण का चक्रव्यूह बना देते हैं, जिससे निकलना अभिमन्यु (मतदाता) ने सीखा नहीं। उत्तर प्रदेश में समाजवादी पार्टी द्वारा अपराधियों को चुनाव के अखाड़े में उतारना, कर्णाटक में छात्राओं को बुर्के में कैद करना, राजनीतिज्ञों में शब्द-हथियारों से गृह युद्ध-सा छिड़ना, और चुनाव विश्लेषकों द्वारा जाति-धर्म के आधार पर जीत-हार का अद्भुत गणित विकसित करना-क्या यह सब भारत की एकता एवं अखंडता को तार-तार करने का खेल नहीं है? क्या यह लोकतंत्र के नाम पर भारत राष्ट्र को कमजोर करने का उपक्रम नहीं है? मतदाता सौ प्रतिशत शिक्षित हों, गरीबी की रेखा से नीचे कोई नहीं रहे, तभी लोगों को लोकतंत्र का अर्थ और मूल्य समझ में आएगा। तभी ये जाति, धर्म और वर्गों के समीकरण टूटेंगे। तभी लोकतंत्र को सिर नहीं मस्तिष्क मिलेंगे। पांच राज्यों के चुनावों के परिणाम 10 मार्च 2022 को आ जायेंगे और जहां पहुंचकर चुनाव आयोग की आचार संहिता के लम्बे हाथ भी बौने हो जायेंगे। मतदाता का रोल भी समाप्त हो जाएगा। वे दिन प्रतिनिधियों के होंगे, इसी दिन के लिए तो वे खडे़ हुए हैं वरना सेवा तो वे लोग ज्यादा करते हैं जो सत्ता से बाहर हैं। पर वैसे लोगों को केवल आदर मिलता है और नेताओं के पेट आदर से नहीं भरते, उनकी जीभ अंगुलियों पर है। जैसे ''भय के बिना प्रीत नहीं होती'', वैसे ही भय के बिना सुधार भी नहीं होता। इस चुनाव में सबसे बड़ा हल्ला यह था की कहीं हल्ला नहीं है।

लोकतंत्र में जनता की आवाज की ठेकेदारी राजनैतिक दलों ने ले रखी है, पर ईमानदारी से यह दायित्व कोई भी दल सही रूप में नहीं निभा रहा है। ”सारे ही दल एक जैसे हैं“ यह सुगबुगाहट जनता के बीच बिना कान लगाए भी स्पष्ट सुनाई दी है। राजनीतिज्ञ पारे कर तरह हैं, अगर हम उस पर अँगुली रखने की कोशिश करेंगे तो उसके नीचे कुछ नहीं मिलेगा। चुनाव अभियान में जो मतदाताओं के मुंह से सुना गया उनके भावों को शब्द दें तो जन-संदेश यह होगा-स्थिरता किसके लिए? नेताओं के लिए या नीतियों के लिए। परिवर्तन की बात सब करते हैं। परिवर्तन की बातें भी बहुत हुईं, पर मुद्दों में परिवर्तन नहीं। एक थकी हुई सरकार भ्रष्ट सरकार से भी ज्यादा खतरनाक होती है। कमजोर प्रशासन भी भ्रष्टाचार है। आज वीआईपी (अति महत्वपूर्ण व्यक्ति) और वीसीपी (अति भ्रष्ट व्यक्ति) में फर्क करना मुश्किल हो गया है। भारत में गॉड और गॉडमैन ज्यादा महत्त्वपूर्ण हो गये हैं। लगता है किसी भगवान को इस स्थिति से बचाने के लिए आना होगा। प्रत्याशी अपनी टिकटों की कीमत जानते हैं, मूल्य नहीं। अपने गर्व को महत्व देते हैं, शहीदों के गौरव को नहीं। लोकतंत्र में भय कानून का होना चाहिए, व्यक्ति का नहीं।

एक दिन का राजा माने जाने वाले मतदाता की ताकत का राजनीतिक दलों ने जमकर दुरुपयोग करने के नये-नये तरीके इजाद कर लिये हैं। क्योंकि उनमें देश-समाज को खंडित करने वाली नीयत भी होती है एवं राष्ट्र के प्रतीकों को तिरष्कृत करने का आग्रह भी होता है। कुछ चीजों का नष्ट होना जरूरी था, अनेक चीजों को नष्ट होने से बचाने के लिए। जो नष्ट हो चुका वह कुछ कम नहीं, मगर जो नष्ट होने से बच गया वह उस बहुत से बहुत है। लोकतंत्र को जीवन्त करने के लिए हमें संघर्ष की फिर नई शुरूआत करनी पडे़गी, वरना हर पाँच साल में मतपत्र पर ठप्पा लगाने का यह बासी हो चुका विकल्प हमें यूँ ही छलता रहेगा।