डॉ जितेंद्र सिंह ने कहा, डब्ल्यूआईएचजी ने उत्तराखंड और हिमाचल प्रदेश के हिमालयी क्षेत्र में प्रत्येक में 40 भू-तापीय स्प्रिंग्स की मैपिंग की है, और तपोवन में एक बाइनरी पावर प्लांट द्वारा प्रारंभिक चरण में पाँच मेगावाट बिजली उत्पन्न करने का प्रयास कर रहा है।
केंद्रीय मंत्री ने कहा कि भू-गतिकी के दृष्टिकोण से हिमालय क्षेत्र के मूल्यांकन के साथ-साथ भूकंप, भूस्खलन, हिमस्खलन या फिर आकस्मिक बाढ़ जैसी घटनाओं की वैज्ञानिक व्याख्या; और भू-तापीय ऊर्जा स्रोत, खनिज, अयस्क निकाय, हाइड्रोकार्बन, झरने, नदी प्रणाली जैसे भू-संसाधनों की खोज और उनके बारे में विस्तृत वैज्ञानिक समझ विकसित करने में भी डब्ल्यूआईएचजी ने योगदान दिया है। उल्लेखनीय है कि भौतिकी, रसायनिकी और गणित के सिद्धांतों के आधार पर पृथ्वी की भौतिकीय प्रक्रियाओं को समझने के विज्ञान को भू-गतिकी (Geodynamics) के रूप में जाना जाता है। डॉ सिंह ने कहा कि हिमालय क्षेत्र के संसाधनों का उपयोग सामाजिक एवं आर्थिक विकास के लिए किया जा सकता है।
डॉ सिंह ने कहा कि अधिक ऊंचाई वाले हिमनदों पर अपस्ट्रीम जलवायु परिवर्तन के प्रभाव और डाउनस्ट्रीम नदी प्रणाली पर उनके परिणामों को समझना महत्वपूर्ण है, जो सिंचाई, पेयजल, जल के औद्योगिक एवं घरेलू उपयोग, जल विद्युत परियोजनाओं के माध्यम से करोड़ों लोगों; यहाँ तक कि पर्यटकों और तीर्थयात्रियों को भी भोजन उपलब्ध कराने के लिए जाने जाते हैं। जल विद्युत परियोजनाओं के प्रभाव के मूल्यांकन के अतिरिक्त डब्ल्यूआईएचजी हिमालय क्षेत्र में सड़क निर्माण, रोपवे, रेलवे, सुरंग निर्माण इत्यादि से जुड़ी कई अन्य विकासात्मक गतिविधियों से संबंधित पर्यावरणीय प्रभाव का मूल्यांकन भी कर रहा है।
डॉ जितेंद्र सिंह ने कहा कि ऊर्जा सुरक्षा से लेकर जल सुरक्षा, औद्योगिक विस्तार, प्राकृतिक आपदाओं के शमन, पारिस्थितिकी और जैव विविधता पर जलवायु परिवर्तन के प्रभाव, पर्यावरण संरक्षण आदि में भू-विज्ञान महत्वपूर्ण भूमिका निभा सकता है। उन्होंने कहा कि उत्तराखंड हिमालय में लगभग एक हजार हिम नदियां और इतनी ही संख्या में ग्लेशियर झीलें हैं। उपग्रह डेटा का उपयोग आमतौर पर एक बड़े और दुर्गम क्षेत्र में हिम नदियों या ग्लेशियर झीलों के आयाम और संख्या के बारे में जानकारी प्राप्त करने के लिए किया जाता है, लेकिन, भूमि-आधारित डेटा सटीक मॉडलिंग के लिए आवश्यक हैं।
पृथ्वी विज्ञान मंत्रालय द्वारा जारी वक्तव्य में बताया गया है कि डब्ल्यूआईएचजी; उत्तराखंड, जम्मू-कश्मीर, लद्दाख और सिक्किम में कई ग्लेशियरों की निगरानी कर रहा है। इस संस्थान ने मौसम विज्ञान, जल विज्ञान, भूकंपीय स्टेशन, वीसैट/जीएसएम के माध्यम से डेटा का ऑनलाइन प्रसारण, स्वचालित विश्लेषण/मॉडलिंग, और एआई/एमएल एल्गोरिदम 24X7 के माध्यम से डेटा का एकीकरण, मानक संचालन प्रक्रिया (एसओपी) की स्थापना का एक नेटवर्क स्थापित करके निरंतर मोड पर ग्लेशियरों और झीलों की दीर्घकालिक निगरानी की योजना की परिकल्पना की है। डॉ. सिंह ने कहा कि हितधारकों को अलर्ट जारी करना तथा एक पूर्व चेतावनी प्रणाली के प्रभावी निष्पादन हेतु समय पर प्रतिक्रिया के लिए स्थानीय लोगों को संवेदनशील बनाना समय की आवश्यकता है।
हाल में अत्यधिक वर्षा के कारण भूस्खलन की तीव्रता और बारंबारता में वृद्धि हुई है, जिसे उत्तराखंड और हिमाचल प्रदेश दोनों के ही हिमालयी क्षेत्र में महसूस किया गया है। इस आवश्यकता को पूरा करने के लिए, डब्ल्यूआईएचजी ने दोनों राज्यों के लिए क्षेत्रीय स्तर पर और नैनीताल और मसूरी शहरों और भागीरथी, गौरीगंगा और काली नदी घाटी के लिए स्थानीय स्तर पर भूस्खलन संवेदनशीलता मानचित्र तैयार किए हैं, जिनका उपयोग दुष्परिणामों से बचने के लिए शहरी नियोजन में किया जा सकता है।
डॉ जितेंद्र सिंह ने कहा, डब्ल्यूआईएचजी ने उत्तराखंड और हिमाचल प्रदेश के हिमालयी क्षेत्र में प्रत्येक में 40 भू-तापीय स्प्रिंग्स की मैपिंग की है, और तपोवन में एक बाइनरी पावर प्लांट द्वारा प्रारंभिक चरण में पाँच मेगावाट बिजली उत्पन्न करने का प्रयास कर रहा है। अगर यह सफल होता है तो इसे बिना किसी कार्बन फुटप्रिंट के अंतरिक्ष तापन और विद्युत ऊर्जा में रूपांतरण के लिए सभी भू-तापीय क्षेत्रों में विस्तारित किया जाएगा। उन्होंने कहा, इसमें रोजगार सृजन, पर्यटकों को आकर्षित करने, गर्म पानी के स्विमिंग पूल के निर्माण जैसे छोटे स्तर के व्यवसाय स्थापित करने और झरने के पानी से औषधीय सामग्री निकालने की क्षमता है।