एक बार की बात है। दैत्यराज एवं पुरोहित सहित राजकुमार, सब लोग एक ही साथ सभा में पहुंचे और सबका यथोचित स्वागत अभिवादन आदि हुआ। प्रह्लाद जी ने पिता के चरणों में प्रणाम किया। दैत्यराज ने उनको आशीर्वाद दे अपने आसन पर बैठने की आज्ञा दी।
एक बार की बात है। दैत्यराज एवं पुरोहित सहित राजकुमार, सब लोग एक ही साथ सभा में पहुंचे और सबका यथोचित स्वागत अभिवादन आदि हुआ। प्रह्लाद जी ने पिता के चरणों में प्रणाम किया। दैत्यराज ने उनको आशीर्वाद दे अपने आसन पर बैठने की आज्ञा दी। राजसभा ठसाठस भरी थी, हिरण्यकशिपु की राजसभा समस्त ऐश्वर्य की मूर्तिमान छटा थी, परंतु दैत्यराज की उदासीनता से सारी की सारी सभा उदासीन सी प्रतीत हो रही थी। भावी शोक की छाया मानो सबके हृदयों पर पड़ रही थी। सारे सभासद चुपचाप बैठे थे, कोई किसी से कुछ भी कहता सुनता नहीं था।
राजसभा शांत थी, दैत्यराज भी चुपचाप बैठे थे, इसी बीच में दैत्य गुरुओं ने पाठशाला में छात्रों को प्रह्लाद द्वारा दी जाने वाली हरिभक्ति रूपी राजद्रोही वक्तृताओं का समाचार सुनाया। दैत्यराज का चित्त ब्रह्मशाप के प्रभाव से पहले से ही भय और शोक से संतप्त हो रहा था। अतः जैसे ही उसने गुरुवरों के मुख से प्रह्लाद की बातें सुनीं, वैसे ही उसके शरीर में आग सी लग गयी। उसने क्रोधपूर्ण विकराल नेत्रों से प्रह्लाद की ओर देखा और कहा रे दुष्ट, क्या अभी तक तेरी मूर्खता नहीं गयी? क्या अब भी अपनी दुष्टता छोड़कर मेरी आज्ञा का पालन नहीं करेगा? मेरा यह अंतिम आदेश है कि तीनों लोक का एकमात्र मैं ही स्वामी हूं, इसलिए तू मुझको ही ईश्वर मान और मेरी ही पूजा कर, उस दुष्ट शत्रु गोविन्द का नाम छोड़ दे। दैत्यराज के वचन समाप्त होते ही राजपुरोहितों ने भी उनकी ही हां में हां मिला दी। पिता एवं पुरोहित जी के वचन सुनकर परम भागवत प्रह्लाद जी हंसते हुए कहने लगे- बड़े आश्चर्य की बात है कि वेद वेदांत के जानने वाले विद्वान ब्राह्मण, जिनको सारा संसार आदर की दृष्टि से देखता और पूजता है वे भी भगवान की माया से मोहित हो धृष्टता के साथ अभिमान के साथ इस प्रकार की अनर्गल बातें कहते हैं।
प्रह्लाद जी के निर्भीक और ओजस्वी वचनों को सुनकर दैत्यराज के शरीर में आग लग गयी। क्रोध के मारे उसके सारे अंग कांपने लगे और वह तिरछी नजर से प्रह्लाद की ओर देखता हुआ बोला, रे दुष्ट राजकुमार, बता जिसकी तू इनती प्रशंसा करता है वह तेरा विष्णु है कहां? यदि तेरा विष्णु सर्वव्यापी है तो क्या इस राजसभा में भी है? यदि है तो दिखला कहां है? यदि नहीं दिखलाता तो अब तेरा अंत समय आ गया। अब तक हमने तुझको अपना सुपुत्र मानकर अपने हाथों वध करना उचित नहीं समझा था, किंतु अब ऐसा प्रतीत होता है कि तेरी मृत्यु हमारे ही हाथ है। शीघ्र बतला और दिखला तेरा विष्णु कहां है? मेरी आज्ञा का उल्लंघन करने वाले तुझको मैं अभी यमलोक पहुंचाता हूं। तू किसके बल पर निडर हो कर मेरी आज्ञा का उल्लंघन कर रहा है?
प्रह्लाद जी बोले, हे महाराज जिन्होंने ब्रह्मा से लेकर एक तिनके तक समस्त जगत को अपने वश में कर रखा है। वे भगवान ही मेरे बल हैं, मेरे ही नहीं आपके और अन्य सभी के बल भी वे ही हैं। वे ही महापराक्रमी भगवान ईश्वर हैं, काल हैं और ओज हैं, वे ही साहस, सत्व, बल, इन्द्रिय और आत्मा हैं, वे ही तीनों गुणों के स्वामी अपनी परम शक्ति से विश्व की सृष्टि, पालन और संहार करते हैं। आप अपने इस आसुरी भाव को छोड़कर सबमें समभाव परमात्मा को देखिये। फिर आपको पता लगेगा कि आपका ही क्या किसी का भी कोई शत्रु नहीं है।
प्रह्लाद के वचनों को सुनकर हिरण्यकशिपु क्रोध से अधीर हो उठा और बोला, रे मन्दभागी अब निश्चय ही तेरे मरने की इच्छा है। अच्छा तू कह रहा है कि विष्णु इस सभा में है। क्या इस सामने वाले खम्भे में भी है, यदि है तो जल्दी दिखला, नहीं तो अब हम तेरा सिर इसी तलवार से धड़ से अलग करते हैं। प्रह्लाद जी बोले, पिताजी आप शांत हों, क्रोध न करें। मैंने मिथ्या नहीं कहा, देखिये, मुझे तो इस खम्भे में भी वे स्पष्ट दिखलायी पड़ते हैं। यह सुनकर दैत्यराज हिरण्यकशिपु राजसिंहासन से सहसा कूद पड़ा और क्रोध के आवेश में प्रह्लाद जी को कटु वचन कहता हुआ खड्ग लेकर रत्नों एवं मोतियों से जड़े सामने के खम्भे की ओर लपक कर उस पर बड़े जोर से एक ऐसा प्रहार किया कि जिससे न केवल राजसभा ही बल्कि सारा भूमण्डल डगमगा गया। मुष्टि प्रहार से सहसा भूमण्डल में भारी भूकंप-सा आ गया। तभी दैत्यराज ने सहसा खम्भे को फूटते हुए देखा। अपने भक्त प्रह्लाद के वचनों को और अपनी सर्वव्यापकता को प्रत्यक्ष स्पष्ट सिद्ध करने के लिए भगवान श्रीहरि सभा के बीच स्तम्भ के भीतर से प्रकट हो गये।
दैत्यराज ने आश्चर्य के साथ अद्भत नरसिंह रूप को देखा। जिसका सारा शरीर तो चतुर्भुज सुंदर मनुष्य-सा है और सिर महाभयंकर सिंह का दिख रहा है। उसने भय के कारण आंखें मूंद लीं। तीनों लोक तथा चौदहों भुवन को जीतने वाले अजेय वीर का शरीर मृतप्राय हो गया। उधर घोर गर्जना करते हुए उन भयंकर मूर्तिधारी भगवान नरसिंहजी ने दैत्यराज को उठाकर अपनी जंघा पर रख तीक्ष्ण नखों से उसका उदर नष्ट कर आंतड़ियों को निकाल अपने गले में विजयमाला के रूप में धारण कर लिया। दैत्यराज का अंत पलक मारते ही हो गया। साथ ही उसके साथी असुर भी भगवान नरसिंह की कोपज्वाला में भस्म होकर वहीं ढेर हो गये। हिरण्यकशिपु के वध का समाचार फैलते ही देवताओं के अधीश्वर इंद्र और अन्यान्य दिक्पाल कारागार से तुरंत मुक्त कर दिये गये। सारे संसार में विशेषकर देवता और उनके भक्त धार्मिक विश्व निवासियों में आनन्दमय कोलाहल मच गया।