साहित्य में भी होली के विविध समृद्ध रंग देखने को मिलते हैं। सूफ़ी संत हज़रत निज़ामुद्दीन औलिया, अमीर खुसरो और बहादुर शाह ज़फ़र जैसे मुस्लिम कवियों ने भी होली पर सुंदर रचनाएँ लिखी हैं जो आज भी जन सामान्य में लोकप्रिय हैं।
होली ही एक ऐसा त्योहार है, जिसके लिये मन ही नहीं, माहौल भी तत्पर रहता है। होली का धार्मिक ही नहीं बल्कि सांस्कृतिक दृष्टि से विशेष महत्व है। इस त्योहार की गौरवमय परम्परा को अक्षुण्ण रखते हुए हम एक सचेतन माहौल बनाएं, जहां हम सब एक हो और मन की गन्दी परतों को उतार फेंके ताकि अविभक्त मन के आईने में प्रतिबिम्बित सभी चेहरे हमें अपने लगें। प्रदूषित माहौल के बावजूद जीवन के सारे रंग फीके न पड़ पाए। हम कितने भोले हैं कि अपनी संस्कृति एवं आदर्श परम्पराओं को हमीं मिटा रहे हैं। स्वयं अपना घर जला कर स्वयं तमाशा बन रहे हैं। आखिर हमीं तो वे लोग हैं जिन्होंने देश की पवित्र जमीं के नीचे हिंसा, अन्याय, शोषण, आतंक, असुरक्षा, अपहरण, भ्रष्टाचार, अराजकता, अत्याचार जैसे घिनौने तत्वों की गहरी और लम्बी सुरंगें बिछाकर उन पर अपने स्वार्थों का बारूद फैला दिया, बिना कोई परिणाम सोचे, बिना भविष्य की संभावनाओं को देखे। फिर भला कैसे सुरक्षित रह पाएगा आम आदमी का आदर्श। आम आदमी का जीवन। इन अंधेरों एवं जटिल हालातों के बीच होली जैसे त्योहार हमारी रोशनी की इंतजार एवं उजालों की कामना को पूरा करने के लिये हमें तत्पर करते हैं।
प्रश्न है कि प्रसन्नता का यह आलम जो होली के दिनों में जुनून बन जाता है, कितना स्थायी है? डफली की धुन एवं डांडिया रास की झंकार में मदमस्त मानसिकता ने होली जैसे त्योहार की उपादेयता को मात्र इसी दायरे तक सीमित कर दिया, जिसे तात्कालिक खुशी कह सकते हैं, जबकि अपेक्षा है कि रंगों की इस परम्परा को दीर्घजीविता प्रदान की जाए। स्नेह और सम्मान का, प्यार और मुहब्बत का, मैत्री और समरसता का ऐसा शमां बांधना चाहिए कि जिसकी बिसात पर मानव कुछ नया भी करने को प्रेरित हो सके, आपसी रिश्तों में प्रेम एवं ऊर्जा का संचार करें। कहते हैं प्यार और नफरत एक ही सिक्के के दो पहलू हैं। प्यार पूरी तरह सकारात्मकता और ऊर्जा से भरा भाव है, इसके उलटे नफरत नकारात्मकता और गुस्से से भरा। ऐसा क्यों होता है कि जिससे एक वक्त में हम प्यार करते हैं, उससे ही कुछ समय बाद नफरत करने लगते हैं? प्यार वाला रिश्ता हमारा कइयों के साथ होता है, इन रिश्तों को होली का पर्व नये आयाम एवं नये रंग देता है। जिनसे हम प्यार करते हैं, हमेशा उनकी खुशी चाहते हैं, उनके लिए मन में कोई दुर्भावना या खीझ नहीं होती। उनका हमारी जिंदगी में होना ही हमारे लिए काफी होता है। अमेरिकी लेखक और चिंतक डेनियल कार्डवेल कहते हैं, ‘हम हमेशा दिल से प्यार करते हैं। इसके उलट नफरत की भावना दिमाग से उपजती है।’ होली दिलों से जुड़ी भावनाओं का पर्व है। यह मन और मस्तिष्क को परिष्कृत करता है।
होली-पर्व की सांस्कृतिक परम्परा में अनुपम-अद्भुत है ब्रज की होली। ब्रज की होली विशिष्ट है, विलक्षण है। देश के अन्य भागों में होली होती है एक-दो दिन की किंतु ब्रज में होली होती है 50 दिनों की। ब्रज में बसंत पंचमी के दिन सामूहिक होली जलने वाले स्थानों पर होली का दांड़ा रोप दिया जाता है और वहां लकड़ी, कन्डे आदि एकत्रित होने लगते है। बसंत पंचमी से ही मंदिरों में भगवान के श्रृंगार में अबीर-गुलाल का प्रयोग होने लगता है और धमार के स्वर गूंजने लगते हैं। गांव की चौपालों पर ढोलक खनकने लगती है, झांझ-मंजीरे झंकृत हो उठते है और गूंज उठते है होली के रसिया।
भारतीय शास्त्रीय संगीत तथा लोक संगीत की परंपरा में होली का विशेष महत्व है। हिंदी फ़िल्मों के गीत भी होली के रंग से अछूते नहीं रहे हैं। होली के सतरंगी रंगों के साथ सात सुरों का अनोखा संगम देखने को मिलता है! रंगों से खेलते समय मन में खुशी, प्यार और उमंग छा जाते हैं और अपने आप तन मन नृत्य करने को मचल उठता है। लय और ताल के साथ पैर को रोकना मुश्किल हो जाता है। रंग अपना असर बताते हैं, सुर और ताल अपनी धुन में सब को डुबोये चले जाते हैं! शास्त्रीय संगीत में धमार का होली से गहरा संबंध है। ध्रूपद, धमार, छोटे व बड़े ख्याल और ठुमरी में भी होली के गीतों का सौंदर्य देखते ही बनता है। कथक नृत्य के साथ होली, धमार और ठुमरी पर प्रस्तुत की जाने वाली अनेक सुंदर बंदिशें आज भी अत्यंत लोकप्रिय हैं- चलो गुंइयाँ आज खेलें होरी कन्हैया घर। इसी प्रकार संगीत के एक और अंग धू्रपद में भी होली के सुंदर वर्णन मिलते हैं।
साहित्य में भी होली के विविध समृद्ध रंग देखने को मिलते हैं। सूफ़ी संत हज़रत निज़ामुद्दीन औलिया, अमीर खुसरो और बहादुर शाह ज़फ़र जैसे मुस्लिम कवियों ने भी होली पर सुंदर रचनाएँ लिखी हैं जो आज भी जन सामान्य में लोकप्रिय हैं। आधुनिक हिंदी कहानियों में प्रेमचंद की राजा हरदोल, प्रभु जोशी की अलग अलग तीलियाँ, तेजेंद्र शर्मा की एक बार फिर होली, ओम प्रकाश अवस्थी की होली मंगलमय हो तथा स्वदेश राणा की हो ली में होली के अलग अलग रूप-रंग, आयाम एवं दृष्टिकोण देखने को मिलते हैं।
होली के त्यौहार में विभिन्न प्रकार की क्रीड़ाएँ होती हैं, बालक गाँव के बाहर से लकड़ी तथा कंडे लाकर ढेर लगाते हैं। होलिका का पूर्ण सामग्री सहित विधिवत् पूजन किया जाता है, अट्टहास, किलकारियों तथा मंत्रोच्चारण से पापात्मा राक्षसों का नाश हो जाता है। होलिका-दहन से सारे अनिष्ट दूर हो जाते हैं। होली के त्योहार का विराट् समायोजन बदलते परिवेश में विविधताओं का संगम बन गया है, इस त्योहार को मनाते हुए यूं लगता है सब कुछ खोकर विभक्त मन अकेला खड़ा है फिर से सब कुछ पाने की आशा में। क्योंकि इस अवसर पर रंग, गुलाल डालकर अपने इष्ट मित्रों, प्रियजनों को रंगीन माहौल से सराबोर करने की परम्परा है, जो वर्षों से चली आ रही है। एक तरह से देखा जाए तो यह उत्सव प्रसन्नता को मिल-बांटने का एक अपूर्व अवसर होता है। हिरण्यकशिपु की बहिन होलिका को अग्नि में न जलने का वरदान प्राप्त था। अतः वह अपने भतीजे प्रह्लाद को गोद में लेकर अग्नि में प्रवेश कर गई। किंतु प्रभु-कृपा से प्रह्लाद सकुशल जीवित निकल आया और होलिका जलकर भस्म हो गई। इसलिये होली का त्योहार ‘असत्य पर सत्य की विजय’ और ‘दुराचार पर सदाचार की विजय’ का प्रतीक है। इस प्रकार होली का पर्व सत्य, न्याय, भक्ति और विश्वास की विजय तथा अन्याय, पाप तथा राक्षसी वृत्तियों के विनाश का भी प्रतीक है।