कैसा जिन्दगी का दौर आता है कि आदमी असहाय हो जाता है

क्लू टाइम्स, सुरेन्द्र कुमार गुप्ता। 9837117141


अंदर की लाइट जल गयी है अब परदे करदो ।सड़क से सब अंदर का दिखेगा। सात बजते ही गेट का ताला लगा  दो । अजीब सा भय दिमाग में है।

कानों में शब्द पड़ते हैं लाइटें सब देख लेना जलती न रह जाएँ। अरे हाँ डैडी के कमरे की और पीछे वाले कमरे की जलती रह देना। सभी दरवाजों के ताले लगा दिये ना ?

भगवान के मंदिर के समक्ष हाथ जोड़कर कुछ बोला गया ।कुछ आधा अधूरा सा सुनने में आया। 

उससे पहले दो तीन  दिनों  से अटैची खोल कर साड़ी पेटीकोट ब्लाउज का मेल मिलाया जा रहा है लेकिन मिल ही नहीं रहा। प्रातः चलने से पहले फिर अटैची खोलकर बैठना हुआ कि एक बार और जांच लिया जाए। फिर कमरे में जाकर अलमारी खोली कि अच्छी साड़ियों को अच्छे से ढक दिया जाए ।

ये ले जाओ चादरें, साड़ी फलाने की बहु को दे देना, ये स्कीवी,ये स्वेटर भी ले जाओ ।

फ्रिज को भी देख लेना, पौधों को पानी देने वाले पाइप काँच ठीक से नल पर लपेट देना नहीं तो धूप में  खराब हो जाएगा।

लो चलने का समय भी आ गया और किसी से मिले भी नहीं। अरे हाँ टेलर ने क्या सभी ब्लाउज दिये हैं। अच्छा एक ही दिया है।उसके पास कितने रह गये ? नाप का ब्लाउज रख लिया या दे दिया? 

पेड़ पर अमरूद भी हैं। छत पर जाकर टूटेंगे। नये फूल भी आ रहे हैं। ऊपर जाना ही है तो नालियों में कूड़ा हो तो हटा देना।  मोगरा के फूल तोड़ लेती हूँ। आप लोग तुड़वा लेते तो ज्यादा टूट जाते।

चलो गाड़ी भी आ गयी गेट बंद कर देते हैं। 

वो घर जो खुद खड़े होकर बनवाया कैसे हाथों से छूटता जाता है। एक के आने और जाने से कैसे जीवन वीरान होता है ।दौलत शौहर से ऊपर अपनों का साथ ,स्नेह,सम्मान है। सांसों पर अपना वश तो नहीं। बस कोई बैठकर दो शब्द बोले थोड़ा सा आसमान दिखा दे पसंद नापसंद का खयाल रखे इतनी सी ख्वाहिश ही तो है।

लेकिन घर अपना तो छूटता ही है । शरीर जाने लगता है आत्मा वहीं भटकती है कानों में अलग-अलग  गानों  की आवाजें  गूंजती हैं ---

लेकिन जाना है अपनी गलियों को छोड़ कर। बार-बार बढ़ते कदम हैं लेकिन आंखें घर को बेबसी से ताकतों हैं। आंसू तो सभी आंखों में हैं बस सब्र का बांध उनको रोके हैं।

अभी भोर होने में समय है और सफर शुरू हो गया अंतस वेदना के बोझ के साथ ।