क्लू टाइम्स, सुरेन्द्र कुमार गुप्ता। 9837117141
दो समान खबरें अलग -अलग समय पर पढ़ने को मिलीं तो बरसों पुरानी एक घटना स्मरण हो आई। हमारी दुनिया में कुँवारा पिता तो नहीं होता लेकिन कुँवारी माँ अवश्य बन जाती है ।हम सोचते हैं माँ तो माँ होती है वह कुँवारी हो या विवाहित हो ।सामाजिक संरचना में लेकिन विवाहित है तो गौर्वान्वित है और अविवाहित होने पर शर्मशार है।जब गर्भपात की सुविधा नहीं होगी तब तो बच्चा दुनिया में आता ही था फिर चाहे उसे मारना ही पड़े।सभ्य समाज के नियमों में विवाह ही वह रस्म है जो दो व्यक्तियों को परिवार बनाने की आज्ञा देती है वरना सब अवैध है।पिता तो पर्दे के पीछे रहते हैं परंतु माँ का जीवन नरक हो जाता है।यूँ तो परिजन अनचाहे गर्भ ही कहूँ से चिकितसकों से मिलकर छुटकारा पा लेते हैं ।परंतु कभी-कभी कहानी विचित्र सी बन जाती है।
हमारे परिचित सज्जन थे ,एक दिन हमारे पास आए और परेशानी से अवगत कराकर छुटकारा पाने के लिए प्रार्थना की ।स्थानीय महिला चिकित्सक के द्वारा एक नन्ही बच्ची दुनिया में आई तो परंंतु खेद के साथ कहना पड़ता है कि अपने गांव एम्बुलेंस से जाते हुए जब नहर पार करने लगे तो सुना था कि झोले में बंद शिशु को इस बेरहम दुनिया से मुक्त करने के लिये नहर में फेंक दिया ।हमें समझ नहीं आया कि वह बच्ची मुक्त हुई जलालत से भरी जिंदगी जो उसे मिलती या वो परिवार व लड़की अपनी सामाजिक शान को बचा गये ।वो पुण्य भी था और पाप भी था ।माँ को मुहब्बत की सजा मिली बच्ची का क्या कहें ।एक बात तो अवश्य रही कि इज्जत का जो आडम्बर था वह दुनिया की नजरों में बना रहा ।दूसरी ओर समाज के ठेकेदारों एक शिशु बच गया ।माँ पता नहीं कहाँ हैं ।उसे इस बात की जरा भी भनक है कि नहीं कि उसने प्रेम परिणाम को जो जन्म दिया था वह जिंदा है कि नहीं ।मैं यह बात गहरी सांसों के साथ लिख रही हूँ और हो सकता है मेरी आँखे भी छलक जाएँ परंतु अक्षर खराब नहीं होंगे।।ऐसे बच्चे का जीवन बहुत ही जिल्लत भरा होता है।।पल-पल अपमानित होता उपेक्षित होता फिर भी न जाने कहाँ से हँसी लेकर उधार वह जीता है ।क्रोध को दाँत पीसते हुए प्रकट तो करता है परंंतु परिस्थितियों की बेबसी अंदर ही रोक देती हैं ।क्योंकि पता है मैं अकेला हूँ और मेरा कोई नहीं है जो मेरे पक्ष में मात्र दो शब्द भी बोलेगा ।
ये कैसी मुहब्बत है जो समाज को कुबूल नहीं ।अंजाम भयंकर हैं जिसके ।
कह गये होंगे कबीर कि
पोथी पढ़िपढ़ि जग मुआ पंडित भया न कोई
ढाई आखर प्रेम का पढ़े सो पंडित होई।।
लेकिन मीरा की पीड़ा को देखिए
जो मैं ऐसा जानती प्रीत किए दुख होय
जगत ढिंढोरा पीटती प्रीत न करिए कोय।
विवाह परम्परा समाज को सुव्यवस्थित रखने के लिए ही बनी हैं।सामाजिक सुरक्षा और आर्थिक सुरक्षा के लिए जरूरी है ।परंंतु यदि धारा के विपरीत कोई चलता है तो समाज का ही दायित्व है कि उसे सम्भाले और सुखद परिणाम तक ले जाए ।तब ऊपर वर्णित घटनाएं नहीं घटेंगीं।ना अपूर्ण शिशु का कत्ल होगा और न ही बच गये बच्चे का जीवन जिल्लतों की गाथा बनेगी।अगर हम गीता अंत में याद करें तो शायद ये कर्म का फल है कि पिता तो अनभिज्ञ है ही परंंतु माँ की ममता भी अवश्य ही तमाम उम्र का दर्द लेकर जीती होगी जिसे किसी से बाँट भी नहीं सकती और छुप कर अंधेरे में अपने बच्चे को जिसकी सूरत देखी नहीं बनाकर रोती तो जरूर होगी ।
यही तो समाज है जो सुनते हैं पढ़ते हैं अखबारों में उसीसे कल्पना दौड़ती है जो शब्दों के रूप में उतर जाती है भावनाओं की कलम से ।