परिलोक की कथा-विज्ञान की उन्नति की पराकाष्ठा

क्लू टाइम्स, सुरेन्द्र कुमार गुप्ता। 9837117141

विज्ञान की उन्नति की पराकाष्ठा

अनिला सिंह आर्य


परिलोक की कथाएं होतीं थीं ।राजा रानी की और जादुई पक्षी जिनमें उनकी जान होती थी की कथाएं होतीं थीं।जिनको नाना नानी,दादा दादी से सुन कर हम बड़े हुए।उन में खो जाना और सपनों में भी स्वयं को उसी वातावरण में देखना बहुत आनंददायी होता था ।खुल जा सिमसिम की कहानी या पाताल लोक की दुनिया, तथा आसमान में महल व उड़नखटोले की सैर के साथ याद होगा जादुई दरी जिस पर बैठ कर हवाई मार्ग से गन्तव्य तक पहुँचना ।
ऐसी ही कहानियाँ जो आज विज्ञान ने साकार कर दी हैं।शायद तब भी विज्ञान इतना ही परिष्कृत था जितना आज है ।कल्पना भी घोड़े यूँ ही नहीं दौड़ाती कहीं न कहीं धरातल पर स्थित अवश्य होता है ।
बड़े शहरों में तेज रफ्तार की जिंदगी धरातल से ऊपर बने मार्गों  पर  दौड़ रही है कि मंजिल पर ही रुकती है ।मित्रों ऐसे में वो पहले की तरह किसी अपने से या अनजान से जो अपना बनने वाला है आमना सामना होने की सम्भावना नहीं होती ।ठीक ऐसे ही भूतल की दुनिया मैट्रो की या बडे़ बड़े अस्पतालों की दफ्तरों की है जिनसे धरती के प्राणी अनभिज्ञ रहते हैं ।
मित्रों यह विज्ञान की उन्नति की पराकाष्ठा है जो पहले भी रही ।और प्रलय सभ्यता के आदि का अंत होता है ।न जाने हम कितनी बार बने और कितनी बार बिगड़े हैं या बिगड़ेंगे।इन सबमें मानवीय मूल्य आत्मीय मूल्य परिस्थितियों के अनुरूप स्वयं को ढाल लेते हैं ।जब हम अभाव में या विकासशील स्थिति में होते हैं तब एक दूसरे का हाथ पकड़ कर आत्मियता के साथ भावनाओं का सम्मान करते हुए चलते हैं ।परंतु जब परिस्थितयाँ अनुकूल हो जाती है हम भूलने लगते हैं और बिना पंखों के ही उड़ने लगते हैं ।आरम्भ में आनंदित होते हैं लेकिन शनैः-शनैः अकेलेपन के गहरे कुँए में डूबने लगते हैं ।हाथ बढ़ाते हैं किसी का हाथ थामने को परंतु अंधेरे में लहरा कर खाली हाथ वापस आ जाता है। क्या हम ऐसा विकास चाहते हैं कि हमारे साथ कोई खुशी में खिलखिलाने वाला न हो ।क्या हमने आसमान में आशियाना इसलिए बनाया कि जब हमें पीडा़ हो तो सिसकी सुनने वाला कोई न हो ।क्या हम ऐसी दौलत के तले दबना चाहते हैं कि जब अंतिम समय हो तो दो बूंद आँसू बहाने वाला नसीब में न हो ।