क्लू टाइम्स, सुरेन्द्र कुमार गुप्ता। 9837117141
शरीर ही ब्रह्माण्ड : आसक्त मन बाहर भागता है
गीता में कर्म सिद्धि के पांच हेतु कहे हैं- अधिष्ठान, कर्ता, करण, चेष्टाएं और देव (प्रकृति)। मूल में तो सिंह अधिष्ठान पर आधारित योनि ही है। शक्ति का वाहन है। यही इसकी पहचान है। असुरों से युद्ध में शक्ति का सहायक है...
'शरीर ही ब्रह्माण्ड' श्रृंखला
जीवन कर्म प्रधान है। क्रिया ही कर्म का स्वरूप ले लेती है। क्रिया में मन-इन्द्रियां-बुद्धि तीनों का समन्वय होता है। तीनों के अपने प्रकृति-गुण-धर्म होते हैं। आत्मसिद्ध शाश्वत मानव धर्म होता है। आज आत्मरूप धर्म तथा प्रकृति सिद्ध धर्म दोनों ही छूट गए। मानव की मौलिकता विस्मृत हो गई। मानव में ईश्वरीय अंश भी है और अविद्या अलग से उपलब्ध है, जो ईश्वर को भी प्राप्त नहीं है। वह अहंकारवश, स्वच्छन्दता के कारण अविद्या-अस्मिता-राग-द्वेष-अभिनिवेश की ओर आकृष्ट होता है। आत्मा से वंचित ये कर्म ही पशुभाव की प्रेरणा बनते हैं। इन्द्रियों के प्रत्येक विषय के साथ राग-द्वेष रहते हैं। विषयों का इन्द्रियों में हवन होना ही यज्ञ है। अर्थात्-प्रत्येक कर्म यज्ञ स्वरूप है। इन्द्रियों का मन में लीन हो जाना भी यज्ञ है। इन्द्रियों का संयम रूप अग्नि में हवन करना यज्ञ है।
प्राणों पर नियंत्रण भी आत्मयुक्त मन ही कर पाता है। चूंकि यह सुविधा पशु-पक्षियों को उपलब्ध नहीं है, अत: वे यज्ञ का आयोजन/प्रयोजन नहीं कर सकते। कृष्ण कहते हैं कि यज्ञ न करने वाले इहलोक/परलोक में भी सुख कैसे पा सकते हैं- (4/31) । ये सारे प्रयत्न, यज्ञकर्म केवल मानव ही कर पाता है जबकि मानव का जन्म भी कर्मफल भोगने के लिए ही होता है।
जहां कर्म की बात आती है, वहां समनस्क प्राणी से ही अर्थ रहता है। जो क्रिया के साथ इन्द्रियों का उपयोग कर सके। चूंकि कर्म का कारण इच्छा होता है, अत: प्राणियों के दो भाग दिखाई पड़ते हैं। पहले वर्ग के प्राणी प्रकृति प्रदत्त इच्छा से प्रेरित होकर ही कर्म करते हैं।
गीता का एक श्लोक बहुत कुछ कह रहा है-
ध्यायतो विषयान्पुंस: सङ्गस्तेषूपजायते।
सङ्गात् संजायते काम: कामात्क्रोधोऽभिजायते।। (गीता 2.62)
- विषयों का चिन्तन करने वाले पुरुषों की उन विषयों में आसक्ति हो जाती है। आसक्ति से विषयों की कामना तथा कामना से क्र्रोध उत्पन्न होता है।
क्रोधाद्भवति संमोह: संमोहात्स्मृतिविभ्रम:।
स्मृतिभ्रंशाद् बुद्धिनाशो बुद्धिनाशात्प्रणश्यति।। (गीता 2.63)
पाप्मानं प्रजहि ह्येनं ज्ञानविज्ञाननाशनम।। (गीता 3.41)
- पहले इन्द्रियों को वश में करके, इस ज्ञान-विज्ञान को नष्ट करने वाले महापापी काम को बलपूर्वक मार डाल।
आत्मा के गुण शरीर आधारित नहीं होते। चंचल मन में बुद्धि भी अस्थिर, भावहीन होती है। तब शान्ति और सुख दोनों नहीं मिलते। (गीता 2/66)। और यह भी सत्य है कि मनुष्य प्रकृति के अधीन ही कर्म करने को बाध्य रहता है। (3/5)