क्लू टाइम्स, सुरेन्द्र कुमार गुप्ता। 9837117141
प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने लाल किले से स्वतंत्रता दिवस पर दिए गए राष्ट्र को उद्बोधन में नागरिक कर्तव्य का जिक्र किया। इसे पांचवीं प्राणशक्ति बताया गया। पीएम मोदी ने कहा कि शासक, प्रशासक, पुलिस हो या पीपुल, सबको अपने कर्तव्य निभाने चाहिए। प्रधानमंत्री की यह बात बिल्कुल सही लगती है कि बगैर नागरिक कर्तव्य के कोई भी देश पूर्ण रूप से तरक्की नहीं कर सकता। यहां सवाल आम आदमी के कर्तव्य का बाद में उठता है। कर्तव्य निभाने का पहला और मूल सवाल तो आम नागरिकों के टैक्स के बूते सरकारी पदों पर बैठे हुए भारी-भरकम वेतन और सुविधाएं प्राप्त कर रहे अधिकारियों का हैं। इसी तरह का सवाल संसद-विधानसभाओं में कीमती वक्त और लोगों की गाढ़ी कमाई को शोर-शराबे और धरने-प्रदर्शन में बर्बाद करने और अशोभनीय हरकत करने वाले जनप्रतिनिधयों का भी है। क्या सरकारी कार्मिक वेतन और सुविधाओं के बदले में ईमानदारी से अपनी ड्यूटी को अंजाम दे रहे हैं। इसी तरह क्या जनप्रतिनिधी वेतन-सुविधाएं लेने के ऐवज में अपना फर्ज अदा कर रहे हैं। यह सर्वविदित है कि जनप्रतिधियों ने सर्वोच्च संवैधानिक संस्थाओं को पैतरेबाजी का अखाड़ा बना दिया है। भारत और लोकतंत्र को शर्मसार करने की क्या कुछ घटनाएं इनमें देखने को नहीं मिली। सदन के सत्र के दौरान कामकाज में बाधा डालने के अलावा मारपीट, कपड़े फाडऩे, एक-दूसरे पर माइक और कुर्सियों से हमला करने के मामले ज्यादा पुराने नहीं हैं।
ऐसे में सबसे पहली जरूरत आम लोगों की बजाए, आम लोगों की बदौलत ऐश-आराम करने वाले नेताओं और कार्मिकों से कर्तव्य निभाने की बात सबसे पहले करनी चाहिए। इनके साथ कानूनी सख्ती बरती जानी चाहिए। जब तक ऐसे गैरजिम्मेदार और नाकारा लोगों को जेल की सजा नहीं मिलती, तब तक आम लोगों से कर्तव्य निभाने की बात करना बेमानी है। कर्तव्य निभाना तो बहुत दूर रहा अलबत्ता जब कभी नेताओं के यहां छापे पड़ते हैं तो इसे विपक्षी दलों के खिलाफ बदले की कार्रवाई करार दिया जाता है। जिस दल की सरकार ऐसी कार्रवाई करती है, उसे ही विपक्ष के ऐसे आरोपों का सामना करना पड़ता है। देश को लूट कर खाने वाले ऐसे नेताओं-अफसरों के खिलाफ देशदा्रेह का मुकदमा चलाने के बजाए विरोधी दल एकजुट होकर उसके बचाव में उतर आते हैं। ऐसी कार्रवाईयों के प्रति किसी भी दल मे शर्म-लिहाज शायद ही बची हो। जिस दल के नेता के खिलाफ र्कारवाई की गई, उसे गलत ठहराने के लिए धरने-प्रदर्शन तक की बेशर्मी बरतने से भी उन्हें गुरेज नहीं रहता। किसी भी दल या नेता को कोर्ट पर भरोसा नहीं है। यदि सबूत नहीं हुए तो कोर्ट बाइज्जत बरी कर सकता है, लेकिन ये दलीलें सिर्फ आम लोगों पर लागू होती हैं, नेताओं पर नहीं।
यह बात दीगर है कि कानून बनाए भी नेताओं ने ही हैं, किन्तु जब लागू करने की बात आती है तो उनका रंग-रूप ही बदल जाता है। आम लोगों पर ऐसे कानून लागू हों तो किसी को कोई तकलीफ नहीं, पर जब कानून के समानता से लागू करने की बात आती है तो सबसे पहले नेता ही अपने को उससे ऊपर बताते हैं। नेताओं को कर्तव्य की सीख देना आसान नहीं है। देश में ऐसा एक भी राजनीतिक दल नहीं है, जिसके नेताओं पर चोरी, डकैती, भ्रष्टाचार, बलात्कार, बलवा जैसे मुकदमें नहीं चल रहे हों, इन आपराधिक मामलों पर इनका एक ही जवाब होता है कि सत्तारुढ़ दल (सरकार) ने बदले की भावना से उन्हें फंसाया हैं। ऐसे नेताओं को कर्तव्य का एहसास तक कराना लौहे के चने चबवाने से कम नहीं है।
इसमें कोई संदेह नहीं कि प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी का यह सपना देश को तरक्की की राह पर ले जाने वाले है। सवाल यही है इसकी शुरुआत कहां से हो। दरअसल इसकी शुरुआत ऊपर से होनी चाहिए। अधिकार के साथ कर्तव्य के लिए भी कानून बनना चाहिए। कर्तव्यों का पालन नहीं करने वाले जनप्रतिनिधि-अधिकारियों को सीधे जेल भेजे जाने की सजा होनी चाहिए। केवल मौखिक तौर पर अपील करने से भ्रष्ट और निकम्मे नेताओं की मोटी चमड़ी पर कोई असर नहीं पडऩे वाला। रहा सवाल देश के आम लोगों से कर्तव्य की उम्मीद करना, तो सवाल यह है कि जिस देश की करीब आधी आबादी को मुश्किल से एक वक्त का भोजन नसीब हो, रहने के लिए घर नहीं, शिक्षा नहीं हो, पानी-बिजली जैसी मूलभूत सुविधाएं उपलब्ध नहीं हो, उनसे कर्तव्य की पालना की उम्मीद किस मुंह से की जा सकती है। इस आबादी को अपने अधिकारों के बारे में ज्ञान तक नहीं है, इनसे कर्तव्य निभाने की अपेक्षा करना तो दूर की कौड़ी है। सवाल यह है कि कि भूखे पेट किसी से क्या कर्तव्य निभाने की उम्मीद की जा सकती है। जिस तरह देश की आजादी के लिए अंग्रेजों और राजाओं से लंबी लड़ाई लड़ी गई, उसी तरह कर्तव्य निभाने का रास्ता भी बेहद मुश्किल और कांटों भरा है। इसकी शुरुआत देश के शासकों से जब तक नहीं होगी, इसकी मंजिल तक कभी नहीं पहुंचा जा सकेगा।