क्लू टाइम्स, सुरेन्द्र कुमार गुप्ता। 9837117141
बछ बारस प्रतिवर्ष जन्माष्टमी के चार दिन पश्चात भाद्रपद महीने के कृष्ण पक्ष की द्वादशी के दिन 24 अगस्त को मनाया जाता है इसलिए इस गोवत्स द्वादशी भी कहते है। भगवान कृष्ण के गाय और बछड़ो से बड़ा प्रेम था इसलिए इस त्यौहार को मनाया जाता है और ऐसा माना जाता है की बछ बारस के दिन गाय और बछड़ों की पूजा करने से भगवान कृष्ण सहित गाय में निवास करने वाले सैकड़ो देवताओ का आशीर्वाद मिलता है जिससे घर में खुशहाली और सम्पन्नता आती है। बछबारस का पर्व राजस्थानी महिलाओं में ज्यादा लोकप्रिय है।
बछबारस पूजन की सामग्री और पूजा विधि
पूजा के लिए भैंस का दूध और दही, भीगा हुआ चना और मोठ लें। मोठ-बाजरे में घी और चीनी मिलाये। गाय के रोली का टीका लगाकर चावल के स्थान पर बाजरा लगाये। बायने के लिए एक कटोरी में भीगा हुआ चना, मोठ ,बाजरा और रुपया रखे। इस दिन बछड़े वाले गाय की पूजा की जाती है यदि गाय की पूजा नही कर सकते तो एक पाटे पर मिटटी से बछबारस बनाते है और उसके बीच में एक गोल मिटटी की बावडी बनाते है। फिर उसको थोडा दूध दही से भर देते है। फिर सब चीजे चढाकर पूजा करते है। इसके बाद रोली ,दक्षिण चढाते है। स्वयम को तिलक निकालते है। हाथ में मोठ और बाजरे के दाने को लेकर कहानी सुनाते है। बछबारस के चित्र की पूजा भी की जा सकती है।
बछबारस की कहानी
बहुत समय पहले की बात है एक गाँव में एक साहूकार अपने सात बेटो और पोतो के साथ रहता था। उस साहूकार ने गाँव में एक तालाब बनवाया था लेकिन बारह सालो तक वो तालाब नही भरा था। तालाब नही भरने का कारण पूछने के लिए उसने पंडितों को बुलाया। पंडितों ने कहा कि इसमें पानी तभी भरेगा जब तुम या तो अपने बड़े बेटे या अपने बड़े पोते की बलि दोगे। तब साहूकार ने अपने बड़ी बहु को तो पीहर भेज दिया और पीछे से अपने बड़े पोते की बलि दे दी। इतने में गरजते बरसते बादल आये और तालाब पूरा भर गया।
इसके बाद बछबारस आयी और सभी ने कहा की “अपना तालाब पूरा भर गया है इसकी पूजा करने चलो”। साहूकार अपने परिवार के साथ तालाब की पूजा करने गया।वह दासी से बोल गया था की गेहुला को पका लेना।गेहुला से तात्पर्य गेहू के धान से है। दासी समझ नही पाई। दरअसल गेहुला गाय के बछड़े का नाम था। उसने गेहुला को ही पका लिया। बड़े बेटे की पत्नी भी पीहर से तालाब पूजने आ गयी थी। तालाब पूजने के बाद वह अपने बच्चो से प्यार करने लगी तभी उसने बड़े बेटे के बारे में पुछा।
तभी तालाब में से मिटटी में लिपटा हुआ उसका बड़ा बेटा निकला और बोला की माँ मुझे भी तो प्यार करो। तब सास बहु एक दुसरे को देखने लगी। सास ने बहु को बलि देने वाली सारी बात बता दी। फिर सास ने कहा की बछबारस माता ने हमारी लाज रख ली और हमारा बच्चा वापस दे दिया। तालाब की पूजा करने के बाद जब वह वापस घर लौटे तो उन्होंने देखा बछड़ा नही था। साहूकार ने दासी से पूछा की बछड़ा कहा है तो दासी ने कहा कि “आपने ही तो उसे पकाने को कहा था”।
साहूकार ने कहा की ''एक पाप तो अभी उतरा ही है तुमने दूसरा पाप कर दिया।'' साहूकार ने पका हुआ बछड़ा मिटटी में दबा दिया। शाम को गाय वापस लौटी तो वह अपने बछड़े को ढूंढने लगी और फिर मिटटी खोदने लगी। तभी मिटटी में से बछड़ा निकल गया। साहूकार को पता चला तो वह भी बछड़े को देखने गया। उसने देखा कि बछडा गाय का दूध पीने में व्यस्त था। तब साहूकार ने पुरे गाँव में यह बात फैलाई कि हर बेटे की माँ को बछबारस का व्रत करना चाहिए और तालाब पूजना चाहिए। हे बछबारस माता! जैसा साहूकार की बहु को दिया वैसा हमे भी देना। कहानी कहते सुनते ही सभी की मनोकामना पूर्ण करना। इसके बाद गणेश जी की कहानी कहे।
बायना निकालना
एक कटोरी मोंठ ,बाजरा रखकर उसके ऊपर रुपया रख देवे। इनको रोली और चावल से छींटा देवे। दोनों हाथ जोडकर कटोरी को पल्ले से ढककर चार बार कटोरी के उपर हाथ फेर ले। फिर स्वयम के तिलक निकाले। यह बायना सांस को पाँव छुकर देवे। बछबारस के दिन बेटे की माँ बाजरे की ठंडी रोटी खाती है। इस दिन भैंस का दूध, बेसन, मोंठ आदि खा सकते है। इस दिन गाय का दूध, दही, गेंहू और चावल नहीं खाया जाता है।
उद्यापन
जिस साल लड़का हो या जिस साल लडके की शादी हो उस साल बछबारस का उद्यापन किया जाता है। सारी पूजा हर वर्ष की तरह करे। सिर्फ थाली में सवा सेर भीगे मोठ बाजरा की तरह कुद्दी करें। दो दो मुट्ठी मोई का (बाजरे की आटे में घी ,चीनी मिलाकर पानी में गूँथ लें) और दो दो टुकड़े खीरे के तेरह कुडी पर रखें। इसके ऊपर एक तीयल (दो साड़ी और ब्लाउज पीस) और रुपया रखकर हाथ फेरकर सास को छुकर दें। इस तरह बछबारस का उद्यापन पूरा होता है।
महत्व
यह पर्व पुत्र की मंगल-कामना के लिए किया जाता है। इस पर्व पर गीली मिट्टी की गाय, बछड़ा, बाघ तथा बाघिन की मूर्तियां बनाकर पाट पर रखी जाती हैं तब उनकी विधिवत पूजा की जाती है। भारतीय धार्मिक पुराणों में गौमाता में समस्त तीर्थ होने की बात कहीं गई है। पूज्यनीय गौमाता हमारी ऐसी मां है, जिसकी बराबरी न कोई देवी-देवता कर सकता है और न कोई तीर्थ. गौमाता के दर्शन मात्र से ऐसा पुण्य प्राप्त होता है, जो बड़े-बड़े यज्ञ, दान आदि कर्मों से भी नहीं प्राप्त हो सकता। ऐसी मान्यता है कि सभी देवी-देवताओं एवं पितरों को एक साथ खुश करना है तो गौभक्ति-गौसेवा से बढ़कर कोई अनुष्ठान नहीं है। गौ माता को बस एक ग्रास खिला दो, तो वह सभी देवी-देवताओं तक अपने आप ही पहुंच जाता है। भविष्य पुराण के अनुसार गौमाता कि पृष्ठदेश में ब्रह्म का वास है, गले में विष्णु का, मुख में रुद्र का, मध्य में समस्त देवताओं और रोमकूपों में महर्षिगण, पूंछ में अनंत नाग, खूरों में समस्त पर्वत, गौमूत्र में गंगादि नदियां, गौमय में लक्ष्मी और नेत्रों में सूर्य-चन्द्र विराजित हैं इसीलिए बछ बारस या गोवत्स द्वादशी के दिन महिलाएं अपने बेटे की सलामती, लंबी उम्र और परिवार की खुशहाली के लिए यह पर्व मनाती है। इस दिन घरों में विशेष कर बाजरे की रोटी जिसे सोगरा भी कहा जाता है और अंकुरित अनाज की सब्जी बनाई जाती है. इस दिन गाय की दूध की जगह भैंस या बकरी के दूध का उपयोग किया जाता है।