क्लू टाइम्स, सुरेन्द्र कुमार गुप्ता। 9837117141
ऐसा दु:खद अंत होता है, सच्चे प्रेम में जीने वालों का
अमरबेल ने बड़े चाव से
बड़े पेड़ को गले लगाया
गले लगाकर बढ़ते बढ़ते
फैल गयी वो सकल वृक्ष पर
पेड़ बेचारा था मतिमारा
इसी प्रेम में अंधे उसको
बेल के सब बंधन भाते थे
दोनों इस पर इतराते थे।
बेल मगर बढ़ने की सीमा
से बिल्कुल ही अंजानी थी
मन का मनका फेर रही थी
पात पात को घेर रही थी
ऐसी छायी ऐसी छायी
पेड़ कहीं दिखता तक न था
क्या ख़ुद पर उसका हक़ न था!
यही समय था पेड़ ज़रा सा
अगर बेल को समझा लेता
जीवन की ख़ुशियाँ पा लेता
लेकिन भाई चूक गया वो
देखत देखत सूख गया वो
धीरे धीरे हरे झाग से
पत्ते पीले पड़ गये सारे
बिना हवा के बिना धूप के
बदल रहे थे सभी नज़ारे
बेल मगर ये तक ना जानी
अंतर्मन को छील रही थी
उसका होना लील रही थी
पेड़ शीघ्र मरने वाला था
जीवन-धन हरने वाला था
हाय पराये घावों को
अपनी रग से सीने वालों का
ऐसा दु:खद अंत होता है
सच्चे प्रेम में जीने वालों का।
- भानू गुप्ता