क्लू टाइम्स, सुरेन्द्र कुमार गुप्ता। 983711714
(सम्पादकीय)
चंदे में पारदर्शिता
राजनीतिक दलों को मिलने वाले चंदे में पारदर्शिता लाने की मांग पुरानी है। कई लोग इस बात के पक्षधर हैं कि जिस तरह मतदाताओं को अपने प्रतिनिधि के बारे में जानने का हक है, उसी तरह उसके दल को मिलने वाले चंदे के बारे में भी जानकारी मिलनी चाहिए कि वह कहां से आया, किसने कितना चंदा दिया। मगर कोई भी दल इस पारदर्शिता के पक्ष में नहीं दिखता।
प्राय: सभी दल अपने चंदे को गोपनीय रखते हैं। चुनावी बांड की व्यवस्था करते समय उम्मीद बनी थी कि पार्टियों को चंदे के रूप में देकर काले धन को छिपाने की प्रवृत्ति पर लगाम लगेगी। मगर उससे भी यह मकसद पूरा नहीं हो पाया। कोई भी बैंक चंदा देने वाले की पहचान उजागर नहीं कर सकता। इस तरह चंदे की पारदर्शिता तो दूर, राजनीतिक दलों को मिलने वाले चंदे की मात्रा में बेतहाशा अंतर आया है।
अब निर्वाचन आयोग चंदा उगाही की प्रक्रिया को और पारदर्शी बनाना चाहता है। बताया जा रहा है कि उसने विधि मंत्रालय को पत्र लिख कर सुझाव दिया है कि नकद चंदे की राशि बीस हजार रुपए से घटा कर दो हजार रुपए कर दी जानी चाहिए। चंदे के रूप में मिली नकदी कुल चंदे के बीस फीसद या बीस करोड़ रुपए से अधिक न हो।केंद्र सरकार काले धन को लेकर कड़ा रुख रखती है, इसलिए उसे इस सुझाव को मान लेने में कोई दिक्कत नहीं होनी चाहिए। छिपी बात नहीं है कि बहुत सारे लोग काले धन को सफेद करने के लिए राजनीतिक दलों को चंदे के रूप में दे देते हैं। मगर इतने भर से चुनावों में काले धन के प्रवाह को कितना रोका जा सकेगा, कहना मुश्किल है।
पिछले कुछ सालों से जिस तरह चुनाव खर्च में बेतहाशा बढ़ोतरी हुई है, उसे देखते हुए सहज ही अंदाजा लगाया जा सकता है कि किस तरह नकदी के रूप में काला धन उंड़ेला जाता है। प्रत्याशियों के लिए चुनाव खर्च की सीमा तय है, मगर तय सीमा के भीतर शायद ही किसी बड़ी राजनीतिक पार्टी का प्रत्याशी पैसा खर्च करता हो। अब तो मतदाताओं को रिझाने के लिए तरह-तरह के महंगे उपहार, नकदी आदि भी खूब बांटे जाते हैं।
महंगी प्रचार सामग्री, विज्ञापनों की भरमार आदि पर जितना पैसा बहाया जाता है, वह तय सीमा से कई गुना ज्यादा होता है। निर्वाचन आयोग इस पर अंकुश लगाने के लिए अनेक मौकों पर कड़े निर्देश जारी कर चुका है, मगर आज तक एक भी ऐसा प्रत्याशी नहीं मिला, जिसे तय सीमा से अधिक खर्च करने पर दंडित किया गया हो।
राजनीतिक पार्टियां बढ़-चढ़ कर चंदे जुटाने का प्रयास ही इसलिए करती हैं कि वे चुनावी समर में पैसे के बल पर आगे दिख सकें। अगर चुनाव खर्च पर ही अंकुश लगाने में कामयाबी मिल जाए, तो चुनावी चंदे के लिए होड़ भी कम हो जाएगी और राजनीतिक दल परदे में पैसा लेने से बाज आएंगे। यह अधिकार निर्वाचन आयोग के पास है, मगर इस पहलू पर उसे कभी सख्त नहीं देखा जाता।
फिर चुनावी बांड को लेकर भी तमाम विपक्षी दलों को एतराज है। बांड के रूप में जो चंदा मिलता है, उसमें से कितना वैध है, किसी को नहीं पता। बैंक चाहें तो उनकी छानबीन कर सकते हैं, मगर इस प्रक्रिया में उनके भी हाथ बंधे हुए हैं। अगर सचमुच निर्वाचन आयोग चंदे में पारदर्शिता को लेकर गंभीर है, तो उसे आमूल-चूल बदलाव का खाका तैयार करना चाहिए।