क्लू टाइम्स, सुरेन्द्र कुमार गुप्ता। 9837117141
(सम्पादकीय)
दवा की कीमत
किसी भी बीमारी के इलाज में होने वाले खर्च का ज्यादातर हिस्सा दवाओं के हिस्से में खर्च होता है। इसकी एक मुख्य वजह यह है कि इन दवाओं की बाजार में बिक्री के लिए जो कीमत होती है, वह आमतौर पर लागत के मुकाबले काफी ज्यादा होती हैं और इसीलिए ये कई बार मरीजों के एक बड़े तबके की पहुंच से बाहर हो जाती हैं। इससे न केवल किसी गंभीर रोग के उपचार में मुश्किल पेश आती है, बल्कि सरकार पर भी इसका अतिरिक्त बोझ पड़ता है। हालांकि समय-समय पर सरकार की ओर से कम कीमत पर या सस्ती दवाएं सभी जरूरतमंद तबकों को उपलब्ध कराने के लिए कदम उठाए जाते हैं, मगर कुछ समय बाद स्थिति पहले की तरह ही हो जाती है।
नतीजतन, बाजार में जीवन रक्षक या बेहद जरूरी दवाएं ऊंची कीमतों पर मिल रही होती हैं और उन्हें हासिल कर पाने में केवल आर्थिक रूप से सक्षम तबका ही कामयाब हो पाता है। इस मसले पर सरकार की ओर से जताई जाने वाली फिक्र अक्सर सामने आती रही है। मसलन, मंगलवार को सरकार ने कहा कि आवश्यक दवाओं की राष्ट्रीय सूची में चौंतीस नई अतिरिक्त दवाओं को शामिल करने से कई गंभीर बीमारियां होने पर मरीजों का खर्च घटेगा। इस तरह सस्ती होने वाली दवाओं की सूची में कैंसररोधी दवा और टीके भी डाले गए हैं, जो अब पहले के मुकाबले कम कीमत में उपलब्ध हो सकेंगे।
निश्चित रूप से आम जनता के लिए यह राहत की खबर है। दवाओं की कीमतों को कम करने की सरकार की ताजा घोषणा अगर सचमुच अमल में आर्इं तो कई एंटीबायोटिक, टीके, कैंसररोधी और कुछ अन्य अहम दवाओं की कीमत कम होगी। तो क्या अब उम्मीद की जानी चाहिए कि जिन दवाओं के दाम कम किए जाने की बात हो रही है, उन तक आम लोगों की भी पहुंच हो सकेगी और ऐसे लोगों का भी जीवन बचाया जा सकेगा, जिनकी बेहद जरूरी दवाओं के अभाव में नाहक ही मौत हो जाती है? सरकार अपनी किसी योजना या कार्यक्रम की घोषणा के बाद उस पर अमल की हकीकत को लेकर कितना गंभीर होती है? खुले बाजार में उपलब्ध दवाओं को कई-कई गुना ज्यादा कीमत पर बेचे जाने को लेकर अक्सर सवाल उठते रहे हैं और इस संदर्भ में सरकार की ओर से आए दिन घोषणाएं होती रहती हैं। लेकिन आम जनता के लिए ऐसी राहत देने की बात करने के कुछ दिनों बाद ही हालत पहले की तरह हो जाती है।
सरकार का कहना है कि कोई भी कंपनी अपने हिसाब से दवा के दाम नहीं बढ़ा सकेगी, लेकिन यह छिपा नहीं है कि इसके बावजूद दवा कंपनियां कोई न कोई रास्ता निकाल लेती हैं, ताकि उनके बेलगाम मुनाफे में कमी नहीं आए। अक्सर ऐसे दिशानिर्देश जारी किए जाते हैं कि डाक्टर मरीजों की चिकित्सा के दौरान जेनेरिक दवाएं लेने की सलाह दें। लेकिन इस पर कितने चिकित्सक अमल करते हैं? जन औषधि केंद्र जैसी व्यवस्था के तहत सरकार अपने नियंत्रण वाली दुकानों में जेनेरिक और सस्ती दवाएं उपलब्ध कराने का दावा तो करती है, मगर कई बार मरीजों को वहां जीवन रक्षक दवा भी नहीं मिल पातीं।
मजबूरन खुले बाजार में निजी दुकानों से उन्हें ऊंची कीमत पर दवा लेना पड़ता है या फिर उसकी कीमत अदा कर पाने में वे सक्षम नहीं होते। जरूरत इस बात की है कि सरकार जनता को सस्ती दवाएं उपलब्ध कराने की केवल घोषणा नहीं करे, बल्कि एक सुगठित तंत्र बनाए जो इस पर अमल सुनिश्चित करे और इसकी स्थिति पर निगरानी रखे। साथ ही, वह तंत्र इन निर्देशों को लागू करने में लापरवाही की पड़ताल करे और दोषियों के खिलाफ कार्रवाई भी करे।