क्लू टाइम्स, सुरेन्द्र कुमार गुप्ता। 9837117141
(सम्पादकीय)
बिलावल की टिप्पणी और पाकिस्तान का पुराना राग
अपने ही देश में और विदेशों में पहचाने जाने को तरसते पाकिस्तानी नेता कई बार बयानबाजी की सीमा लांघ जाते हैं, जहां से ‘यू-टर्न’ लेना उनके लिए मुश्किल हो जाता है। पाकिस्तान के विदेश मंत्री बिलावल भुट्टो द्वारा हाल ही भारत के प्रधानमंत्री के बारे में व्यक्तिगत स्तर पर की गई टिप्पणी पाकिस्तानी सोच उजागर करती है, जो जगजाहिर तो है पर उसे समझा कभी-कभार ही जाता है। पाकिस्तान के मौजूदा राजनीतिक हालात में स्वयं की अहमियत जताने के लिए राजनेता घरेलू राजनीति के सबसे बड़े मुद्दे ‘भारत के साथ शत्रुता’ पर विचार व्यक्त करने के बहाने ढूंढते रहते हैं। इसके पीछे घरेलू राजनीति चमकाने के अलावा और भी बहुत से कारण हो सकते हैं।
भुट्टो जरदारी परिवार के शख्स का कथित तौर पर मानवाधिकारों को लेकर बयान देना ताज्जुब की बात है। धूल हटाकर देखें तो बिलावल के दादा जुल्फिकार अली भुट्टो को आज तक बांग्लादेश और पूर्वी पाकिस्तान में घटी भयावह घटनाओं का साजिशकर्ता माना जाता है। उनकी साजिश को ‘लरकाना षड्यंत्र’ कहा जाता है। भुट्टो ने तत्कालीन सैन्य निदेशक याहया खान के साथ मिलकर योजना बनाई थी कि शेख मुजीबुर्रहमान को सत्ता न मिले। इसी तरह तालिबान जैसी ताकत के उभरने के पीछे बिलावल की मां बेनजीर भुट्टो को जिम्मेदार माना जाता है। बेनजीर सरकार ने अफगानिस्तान में तालिबानी गुट का खुलेआम साथ दिया था। नब्बे के दशक में अपने कार्यकाल के दौरान उन्होंने पाकिस्तान व उत्तरी कोरिया के बीच संबंधों में अहम भूमिका निभाई थी, जिसके तहत उत्तर कोरिया द्वारा पाकिस्तान को मिसाइलें भेजी जानी थीं और उनकी एवज में पाक को असैन्य परमाणु तकनीक उ. कोरिया को मुहैया करवानी थी। सिंध प्रांत का नियंत्रण जरदारी परिवार के हाथ में था, जहां अल्पसंख्यकों, खास तौर पर हिन्दुओं के साथ अत्याचारों के सर्वाधिक मामले बताए जाते हैं। पाक विदेश मंत्री क्या अपने ही परिवार का इतिहास भूल गए हैं, जिसमें कि उनके दादा को फांसी दी गई, पिता को जेल हुई और मां की मौत पाकिस्तान में सैन्य शासन के दौरान हुई। और आज बिलावल उसी तंत्र की खुशामद करने में लगे हैं।
उनकी इस बयानबाजी का एक बड़ा कारण उस सरकार में सम्मान हासिल करने की उनकी जरूरत का नतीजा हो सकती है, जिसका अस्तित्व ही भारत विरोधी रवैये पर टिका हुआ है। उनकी विदेश यात्राएं इस ओर इशारा करती हैं कि वे अंतरराष्ट्रीय स्तर पर उस दर्जे की स्वीकार्यता के लिए ऐसा कर रहे हैं, जो स्वदेश में उन्हें बार-बार कश्मीर का नाम लेने से ही मिल जाती है। जगजाहिर है कि अंतरराष्ट्रीय मंचों पर कश्मीर का नाम लिए बिना पाकिस्तान के किसी भी नेता का कोई वजूद नहीं है। भारत के प्रति जिस जनता में नफरत के बीज बोए गए हों, वहां भारत विरोधी रवैया ही चलता है। पाकिस्तान में पहले ही उन पर सवाल उठ रहे हैं कि वे मौजूदा प्रधानमंत्री के खिलाफ हैं जो अलग राजनीतिक दल के हैं। मतभेद तब उभरे जब पेट्रोलियम मंत्री मुसादिक मसूद मलिक (पाकिस्तान मुस्लिम लीग-नवाज यानी पीएमएलएन) ने रूस से तेल खरीदने के पाकिस्तान के इरादों की घोषणा की। जबकि विदेश मंत्री ने कहा कि पाकिस्तान कम कीमतों पर रूसी तेल खरीदने की न तो कोशिश कर रहा है और न ही उसे यह मिलने जा रहा है, हालांकि विकल्प तलाशे जा रहे हैं। पेट्रोलियम मंत्री ने इस दावे का भी खंडन करते हुए कहा था कि रूस से तेल खरीद पर वार्ता जारी है।
अचरज कि पाकिस्तानी मीडिया ने बिलावल के बयान को सुर्खियां नहीं बनाया पर यह रेखांकित किया कि नए विदेश मंत्री ने राजनीति में अपनी जगह बनाने और नेताओं को प्रभावित करने के लिए यह भाषण दिया। दूसरी तरफ, ट्विटर ने बयान को हवा दी, पर पाकिस्तान की घरेलू राजनीति से समाचारों के रुझान इतनी तेजी से बदलते हैं कि बयानबाजी का जो असर चाहा गया था, हासिल नहीं हुआ।
भारतीय विदेश मंत्रालय ने प्रतिक्रिया देते हुए इस बयान को ‘असभ्य, यहां तक कि पाकिस्तान के लिए भी पतन का नया स्तर’ बताया। स्पष्ट है आधिकारिक तौर पर भारत पाकिस्तानियों के साथ जुबानी जंग में उलझना नहीं चाहता। गैर-आधिकारिक तौर पर इसे लेकर भारतीय प्रतिक्रिया मुखर प्रदर्शन और सिविल सोसायटी द्वारा निंदा के रूप में सामने आई। इनमें भारत के मुसलमान नेता भी शामिल रहे। भारत ने यह भी गौर किया कि बिलावल का बयान जी-77 सम्मेलन की प्रेस कॉन्फ्रेंस में आया, जिसका भू-राजनीतिक प्रभाव काफी कम रहा क्योंकि पाकिस्तानी नियमित रूप से बहुपक्षीय मंचों का इस्तेमाल अपनी वह बात रखने के लिए करते आए हैं, जिसे चीन का समर्थन प्राप्त होता है। एक और पहलू यह है कि ऐसे बयानों को आधिकारिक महत्त्व देना निरर्थक है क्योंकि अब दुनिया पाकिस्तान को पहले के मुकाबले बेहतर ढंग से समझने लगी है। पाकिस्तानी नेता पाकिस्तान के अंदरूनी घटनाक्रम के लिए भी भारत को जिम्मेदार ठहराने के प्रयास करते हैं और इसके लिए भारतीय एजेंसियों के खिलाफ कथित सबूत पेश करते हैं। ये नेता अंतरराष्ट्रीय मंचों का इस्तेमाल और किसी चीज से ज्यादा अपनी लोकप्रियता बढ़ाने और फंड जुटाने के लिए करते हैं।
दुनिया में अलग-थलग पड़ चुका पाकिस्तान अच्छी तरह जानता है कि जब तक वह विश्व मंच पर अपनी परमाणु क्षमता का राग नहीं अलापेगा, कोई उसकी ओर ध्यान नहीं देगा और उसे अपना वजूद बचाने के लिए कोई फंड नहीं मिलेगा। बिलावल की ही पार्टी की एक और मंत्री शाजिया मारी ने भी भारत विरोधी रवैया दिखाते हुए पाकिस्तान की परमाणु हथियार क्षमता संबंधी बयान दिया। दोनों एक ही पार्टी के हैं और ऐसी बयानबाजी कर अपनी चुनावी तैयारी की झलक दिखा रहे हैं। उधर, उनके प्रतिद्वंद्वी इमरान खान भारत व उसके नेताओं की तारीफ कर रहे हैं। इस बीच, बिलावल ने कहा कि वह उनके खिलाफ प्रदर्शन करने वाली बीजेपी से नहीं डरते, क्योंकि वे इतिहास के हवाले से बात कर रहे हैं। पाकिस्तान के इतिहास में कहां लिखा है कि 1971 के युद्ध में हुई पाक की हार सैन्य नहीं, राजनीतिक थी, जैसा कि जनरल बाजवा ने कहा। कुल मिलाकर पाकिस्तान अपने मुद्दों का अंतरराष्ट्रीयकरण कर प्रासंगिक बने रहना चाहता है। भारत की ओर से ऐसी ‘अपरिपक्व बयानबाजी’ की उपेक्षा करना ही उचित है।