न्याय बनाम अन्याय(सम्पादकीय)

क्लू टाइम्स, सुरेन्द्र कुमार गुप्ता 9837117141

(सम्पादकीय)

न्याय बनाम अन्याय

किसी विवाद या अन्याय की स्थिति में व्यक्ति इंसाफ के लिए न्यायालय की शरण में जाता है।


न्याय बनाम अन्याय
अदालतों में बैठे न्यायाधीश तथ्यों, तर्कों और सबूतों के आधार पर मामले में फैसला सुनाते हैं और उम्मीद की जाती है कि सही पक्ष को इंसाफ मिलेगा। लेकिन अगर खुद न्यायिक अधिकारी ही सबूत पेश करने के मामले में गड़बड़ी करने लगें और उसके आधार पर फैसला सुनाने लगें तो इससे न्याय की उम्मीद धूमिल होती है, न्यायालयों पर से भरोसा कम होता है। लक्षद्वीप के एक पूर्व मुख्य न्यायिक मजिस्ट्रेट का जैसा आचरण सामने आया, वह न केवल न्याय की अवधारणा को खंडित, बल्कि हैरान करता है कि अगर न्यायिक अधिकारी गलत सबूत पेश करके मुकदमे का पक्ष तय करें तो इससे कैसा उदाहरण स्थापित होगा।


मगर अच्छी बात है कि इस मामले के सामने आने पर केरल उच्च न्यायालय ने स्पष्ट संदेश दिया कि कोई भी मजिस्ट्रेट, न्यायाधीश और अन्य न्यायिक अधिकारी कानून से ऊपर नहीं है और उसे भी कर्तव्य में लापरवाही के मामले में परिणाम भुगतने होंगे। शुक्रवार को हाईकोर्ट ने एक आरोपी को दोषी करार देने के लिए मुकदमे में कथित रूप से साक्ष्य थोपने के मामले में लक्षद्वीप के पूर्व मुख्य न्यायिक मजिस्ट्रेट को निलंबित करने का आदेश दिया।

आमतौर पर अदालतों में गलत तथ्य, झूठे गवाह और फर्जी सबूत पेश करके मुकदमे को प्रभावित करने की कोशिशें देखी जाती रही हैं। मगर यह माना जाता है कि न्यायाधीश इस स्थिति में कानूनी प्रावधान, प्रक्रिया और व्यवस्था के साथ-साथ अपने विवेक का प्रयोग करके सही और गलत का पक्ष तय करते और उचित फैसला देते हैं। इसके उलट अगर यह स्थिति हो कि खुद न्यायिक मजिस्ट्रेट ही किसी मामले में आरोपी को दोषी करार देने के लिए जाली सबूत गढ़ कर या साक्ष्य थोप कर जालसाजी करे, तो ऐसे मुकदमे में फैसले का अंदाजा लगाया जा सकता है।

ऐसी स्थिति में अदालत का फैसला स्वाभाविक ही न्याय के हक में नहीं होगा। मुश्किल यह है कि ऐसे किसी एक मामले से भी समूची न्यायपालिका की छवि पर असर पड़ता है और लोगों के बीच यह धारणा बनती है कि कोई न्यायिक मजिस्ट्रेट जब इस तरह की कर्तव्यहीनता कर सकता है तो न्याय की उम्मीद लेकर कहां जाया जाए। इसलिए केरल हाईकोर्ट ने इस मामले में जो रुख अख्तियार किया, वह राहत देता है। इससे यह उम्मीद बरकरार रहती है कि गलत आचरण का आरोपी भले ही न्यायिक मजिस्ट्रेट क्यों न हो, वह न्याय की परिधि से ऊपर नहीं है।

यों न्यायपालिका में भ्रष्टाचार के मसले पर लंबे समय से सवाल उठते रहे हैं। खासकर निचली अदालतों में इस समस्या की जटिलता को लेकर चिंता जताई जाती रही है। लेकिन अब भी इस दिशा में ठोस पहलकदमी सामने नहीं आई है, जिससे न्यायिक अधिकारियों के भ्रष्टाचार पर पूरी तरह रोक लग सके। लक्षद्वीप के न्यायिक मजिस्ट्रेट के इस मामले को देखें तो एक पहलू यह है कि अदालत के किसी फैसले पर पूर्वाग्रह या निजी द्वेष का भी असर पड़ सकता है।

सवाल है कि न्याय की कुर्सी पर बैठे व्यक्ति को क्या धन, सुविधा आदि के लोभ या फिर अपने पूर्वाग्रहों के आधार पर किसी मुकदमे का फैसला देने का अधिकार है? कोई भी न्यायाधीश सिर्फ कानूनी प्रावधान और प्रक्रिया से बंधा होता है और इसी सीमा में वह अपने विवेक का प्रयोग करके हर हाल में इंसाफ सुनिश्चित करता है। अगर उसकी किसी अवांछित मंशा की वजह से न्याय प्रभावित होता है, तो इससे उसकी योग्यता पर प्रश्नचिह्न लगेंगे